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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २६, नैयायिक दर्शन
अब (३० प्रयोजनतत्त्व को कहते है। जिस फल के अर्थिपन से फल का अर्थी, उस उस फल के उस उस साधन में प्रवर्तित होता है, उसे प्रयोजन कहा जाता है। उपरांत उस उस साध्य, कि जो कर्तव्यतया इष्ट है, उस फलकी अभिलाषा से उस उस कार्यो में प्रवर्तित होता है उसे प्रयोजन कहा जाता है। प्रमाण के उपन्यास की प्रवृत्ति प्रयोजनमूलक है। अर्थात् प्रमाण का वर्णन करने की प्रवृत्ति (प्रमाण द्वारा अर्थ का ज्ञान पाने के) प्रयोजन से होती है। यानी कि अर्थ का ज्ञान पाने का प्रयोजन होने से प्रमाण का प्रपंच जरुरी है। इस प्रकार प्रमाण के उपन्यास की प्रवृत्ति प्रयोजनमूलक होने से प्रयोजन का प्रमेय में अन्तर्भाव होने पर भी अलग उपदेश किया गया है। आशय यह है कि, प्रमाण द्वारा प्रमेय का ज्ञान पाया जाता है। और प्रयोजन का प्रमेय में अन्तर्भाव हो सकता है। फिर भी प्रमाण का कथन प्रयोजन को लेके है, यह बताने के लिए प्रयोजन का उपदेश प्रमेय से पृथक् (अलग) किया है। ।।२५।।
अथ दृष्टान्तसिद्धान्तौ व्याचिख्यासुराह । अब दृष्टांत और सिद्धांत (तत्त्वकी) व्याख्या करने की इच्छावाले ग्रंथकारश्री कहते है। (मू. श्लोक.)C-17दृष्टान्तस्तु भवेदेष विवादविषयो न यः ।
___C-18सिद्धान्तस्तु चतुर्भेद:C-19 सर्वतन्त्रादिभेदतः ।।२६।। श्लोकार्थ : जो विवाद का विषय न हो वह दृष्टांत होता है। (अर्थात् वादि और प्रतिवादि दोनो को सम्मतविषय दृष्टांत बनता है।) उपरांत सर्वतंत्रादिभेद से सिद्धांत चार प्रकार से है । (सिद्धांत अर्थात् शास्त्रप्रतिपादित नियम।) ॥२६।। __ व्याख्या दृष्टोऽन्तो निश्चयोऽत्रेति दृष्टान्तः, दृष्टान्तः पुनरेषोऽयं भवेत् । एष क इत्याह-य उपन्यस्तः सन् विवादविषयो वादिप्रतिवादिनोमिथो विरुद्धो वादो विवादः, तस्य विषयो गोचरो न भवति, वादिप्रतिवादिनोरुभयोः संमत एवानुमानादौ दृष्टान्त उपन्यस्तव्य इत्यर्थः । पञ्चस्ववयवेषु वक्ष्यमाणोऽपि दृष्टान्तः साध्यसाधनधर्मयोः प्रतिबन्धग्रहणस्थानमिति पृथगिहोपदिश्यते । तावदेव
यह दो वादि और प्रतिवादि के कथन से सुननेवाले को "शब्द नित्य होगा या अनित्य" ऐसा संदेह होता है। अब इस संदेह को न्याय से दूर करके निर्णय लाना चाहिए ।
उपरांत न्यायसूत्र के भाष्य में लिखा है कि "नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थे न्यायः प्रवर्तते, किं तर्हि ? संशयितेऽर्थे " अर्थात् नहीं जाने हुए अर्थ में, उपरांत निश्चयपूर्वक जाने हुए अर्थ में न्याय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। तो किस में न्याय की प्रवृत्ति होती है ? संशयवाले अर्थ में । इस प्रकार न्याय का कथन संशय में से होता
है। इसलिए उसका सोलह तत्त्वो में अन्तर्भाव है। (३०) न्यायसूत्र में प्रयोजन का लक्षण : "यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम् ।" ॥१-१-२४।।--जो अर्थ -- फल को
ध्यान में रखकर प्रवृत्ति करे, उसे प्रयोजन कहा जाता है।
(C-17-18-19)- तु० पा० प्र० प० ।
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