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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २५, नैयायिक दर्शन १८३ यहाँ श्लोक में "किं" शब्द सात अर्थो में से “वितर्क" अर्थ में है। दूर से देखकर पदार्थ का सामान्य तौर से जानता हुआ द्रष्टा, उस पदार्थ के विशेषस्वरुप का संदेह करता हुआ वितर्क-विचारणा करता है कि, यह सामने रही हुइ प्रत्यक्ष वस्तु क्या स्थाणु है या पुरुष है ? जो अनेककोटी परामर्श का संदिग्धविमर्श है उसे संशय माना गया है। अर्थात् जहाँ परस्परविरुद्ध अनेक कोटी का परामर्श होता है, वह संदिग्धविमर्श को संशय कहा जाता है। (३) विप्रतिपत्तेर्विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । विप्रतिपत्ति अर्थात् एक अर्थ के संबंध में बोले जाते परस्परविरुद्ध वाक्य । उन वाक्यो को सुनने से और उसमें निर्णायकविशेष वस्तु क्या है ? यह न जान सकने से संशय उत्पन्न होता है। जैसे कि, एकवादि आत्मा को नित्य कहता है । जबकि दूसरा प्रतिवादि आत्मा को अनित्य कहता है । इस प्रकार परस्परविरुद्ध वाक्य सुनने से विशेषवस्तु के ज्ञान में संशय होता है। (४) उपलब्ध्यव्यवस्थातो विमर्शः संशयः। उपलब्धि की अव्यवस्था (अनियम) से पैदा होता संशय । सत्य पानी तालाबादि में मालूम होता है। और असत्य पानी मृगतृष्णिका (मृगमरीचिका) में भी मालूम पडता है। अब किसी वक्त किसी जगह पे ज्ञाता को पानी की उपलब्धि हुई । उस वक्त दृष्टा को यह सच्चे पानी की उपलब्धि होती होगी या जूठे पानी की उपलब्धि होती होगी? ऐसी विचारणा में पड़ जाते है । इसको उपलब्धि की अव्यवस्था कहा जाता है । सत्य और असत्य का अनुक्रम से साधक और बाधक प्रमाण ज्ञाता को न मिलने से संशय उत्पन्न होता है । इस संशयको उपलब्धि की अव्यवस्था से होता संशय कहा जाता है। (५) अनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विमर्शः संशयः । वस्तु विद्यमान (मौजूद) होने पर भी किसी भी आवरण से ढकी हुई अथवा भूमि में गडी हुई हो तो उसकी उपलब्धि नहीं होती है। अब किसी वक्त ज्ञाता को एक जगह पे वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है। उस वक्त ज्ञाता सोच में पड जाता है कि यह जो अनुपलब्धि हो रही है, वह वस्तु के होने के कारण है या न होने के कारण? यह अनुपलब्धि की अव्यवस्था है। इससे होनेवाला जो संशय है, उसे अनुपलब्धि की अव्यवस्था से होनेवाला संशय कहा जाता है। ___ इन पाँच कारणो से होनेवाले संशयो में पहले दो में जो समानधर्म और अनेक (असाधारण) धर्म बताये गये है, वह ज्ञेय के अंदर रहे हुए धर्म है। और उपलब्धि की अव्यवस्था तथा अनुपलब्धिकी अव्यवस्था यह ज्ञाताआत्मा के अंदर रहे हुए धर्म है। प्रश्न : संशय को सोलह तत्त्वो में क्यों माना गया है ? उत्तर : संशय यह न्याय का पूर्व अंग है। इसलिए उसका तत्त्वो में समावेश किया गया है। संशयवाली बात में अथवा संशयवाले अर्थ में ही न्याय (प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन, ये पाँच वाक्य द्वारा किसी भी विषय को स्पष्ट समजाना वह न्याय) की प्रवृत्ति हो सकती है। जिस विषय में जरा भी संशय नहीं है, वह न्याय का विषय नहीं बन सकता है। तथा जो अर्थ सामान्य रुप में जाना न हो, उसमें भी न्याय नहीं चल सकता । परन्तु जो अर्थ संदिग्ध हो उसमें ही न्याय चल सकता है। जैसे कि, वादि कहता है कि प्रयत्न करने से शब्द उत्पन्न होता है, इसलिए शब्द अनित्य है, जब प्रतिवादि कहता है कि प्रयत्न करने से केवल शब्द के उपर रहा हुआ आवरण ही दूर होता है और आवरण दूर होने पर शब्द सुनाई देता है। इसलिए शब्द सदैव विद्यमान है और इसलिए नित्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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