________________
१८०
षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन
दूसरे देह-इन्द्रियादि के संघात का ग्रहण करना, उसे (२५/प्रेत्यभाव कहा जाता है और यही संसार है। __ प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न होनेवाले सुखादि को (२६)फल कहा जाता है। वहाँ सुख-दुःखात्मक मुख्य फल है। और उसके साधन शरीरादि गौण फल है। पीडा और संताप के स्वभाव को उत्पन्न करे उसे (२०)दुःख कहा जाता है। अर्थात् जिसकी वजह से आत्मा पीडा और संताप महसूस करता है, वह दुख । (पूर्व की प्रवृत्ति और दोष के फल के रुप में सुख-दुःख की गणना की है।) उस फल के ग्रहण से प्राप्त इस सुख का भी दु:ख के साथ अविनाभाव होने से (सुखको भी) दुःखरुप से समजने का उपदेश किया जाता है।
आत्यन्तिक दुःखवियोग को अपवर्ग (मोक्ष) कहा जाता है। सर्व गुण से रहित आत्मा का स्वरुप में जो अवस्थान है, उसे मोक्ष कहा जाता है। सुख-दुःख के विवेक से हान (दुःख की अत्यन्त निवृत्ति) अशक्य है। इसलिए दुःख से निवृत्त होने की इच्छावालो को सुख भी छोडना चाहिए । इसलिए जन्म-जरा-मृत्यु के प्रबंध के उच्छेदरुप (नाशरुप) परम पुरुषार्थ (२८)अपवर्ग है और वह अपवर्ग तत्त्वज्ञान से प्राप्त किया जाता है। ॥२४॥ (२५) न्यायसूत्र में कहा है कि "पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः ।" ॥१-१-१९॥ अर्थात् पुनः पुनः उत्पन्न होना उसका नाम
प्रेत्यभाव है। ___ कहने का मतलब यह है कि, आत्मा अनादि अनंत है। उसका कभी भी विनाश नहीं होता है, इसलिए उत्पत्ति भी नहीं हो सकती । शरीर स्थिर न होने से वह फिर से उत्पन्न नहीं हो सकता । ध्वंस अनंत होने से ध्वंस का प्रतियोगी फिर से पेदा नहीं हो सकता । तब बारबार उत्पत्ति किसकी होती है ? यह विचारणीय प्रश्न है। इसके समाधान में इस सूत्र में जो उत्पत्ति शब्द है, उसका अर्थ संबंध किया है, अर्थात् आत्मा एक शरीर के साथ का संबंध छोडकर दूसरे नये शरीर के साथ जो संबंध बांधता है, वही "पुनरुत्पत्ति" और ऐसा संबंध बारबार आत्मा का अलगअलग शरीर के साथ होता है। इसलिए प्रेत्यभाव आत्मा का ही समजना चाहिए। विजातीय शरीर, इन्द्रियाँ और प्राण आदि के साथ आत्मा का संयोग होना वही जन्म और शरीर के अंदर अंतिम प्राण का ध्वंस होना वह मृत्यु । __यह प्रेत्यभाव अनादि है। उसे अनादि मानने में अनुमानप्रमाण इस अनुसार है - यदि सबसे पहला दुःख माने, तो वह जन्म के बिना कैसे बन सकेगा? यदि प्रथम जन्म माने, तो धर्म और अधर्म बने किस तरह से ? यदि सबसे पहले राग-द्वेष माने, तो वह मिथ्याज्ञान के बिना कैसे संभवित हो सकते है ? इसलिए दुःख, जन्म, प्रवृत्ति,
दोष और मिथ्याज्ञान का कार्यकारणभाव अनादि ही मानना चाहिए। (२६) न्यायसूत्र में कहा है कि "प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम्।" ॥१-१-२०॥ अर्थ स्पष्ट है। राग-द्वेष आदि दोष से
प्रवृत्ति होती है और उससे धर्म-अधर्म उत्पन्न होते है। धर्म और अधर्म से शरीर, विषय, सुख, दुःख उत्पन्न होते है।
इसलिए शरीरादि फल कहा जाता है। (२७) न्यायसूत्र में कहा है कि "बाधनालक्षणं दुःखम् ॥१-१-२१॥ बाध करे वह दुःख । कहने का मतलब यह है
कि, सुख के साथ दुःख भी जुड़ा हुआ है। इसलिए सुख भी दुःख के अविनाभाववाला है। (२८) न्यायसूत्र में कहा है कि "तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः " ॥१-१-२२॥ अर्थात् दुःख के आत्यन्तिक वियोग को
अपवर्ग (मोक्ष) कहा जाता है। वेदान्ती मानते है कि “जीव स्वयं ही मुक्ति अवस्था में ब्रहा अर्थात् परमात्मा बन जाता है।" यह मान्यता नैयायिको को मान्य नहीं है। क्योंकि (जीव और ब्रह्म ऐसे) दो अनादि भिन्न पदार्थ कभी भी अभिन्न नहीं हो सकते है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org