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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २५, नैयायिक दर्शन संशयप्रयोजनयोः स्वरूपं प्राह- अब संशय और प्रयोजन का स्वरुप कहते है । (मू. श्लोक.) किमेतदिति संदिग्धः प्रत्ययः संशयो C-15 मतः । प्रवर्तते यदर्थित्वात्तत्तु साध्यं प्रयोजनम् C-16 ।।२५।। श्लोकार्थ : यह क्या है ? ऐसे संदिग्धविमर्शको (२९) संशय कहा जाता है। जो साध्य को प्राप्त करने की इच्छा से व्यक्ति जिस में प्रवर्तित होती है, वह प्राप्त करने योग्य अर्थ को प्रयोजन कहा जाता है । १८१ व्याख्या-अयं किंशब्दोऽस्ति क्षेपे 'किं सखा योऽभिद्रुह्यति' अस्ति प्रश्ने 'किं ते प्रियं' अस्ति निवारणे 'किं ते रुदितेन' अस्त्यपलापे 'किं तेऽहं धारयामि' अस्त्यनुनये ' किं तेऽहं प्रियं करोमि ' अस्त्यवज्ञाने 'कस्त्वामुल्लापयते' अस्ति वितर्के 'किमिदं दूरे दृश्यते,' इह तु वितर्के, दूरावलोकनेन पदार्थसामान्यमवबुध्यमानस्तद्विशेषं संदिहानो वितर्कयति, एतत् प्रत्यक्षमूर्ध्वस्थितं वस्तु किं तर्के स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । यः संदिग्धोऽनेककोटिपरामर्शो प्रत्ययो विमर्शः, स संशयो मतः संमत इति । अथ प्रयोजनम्, यदर्थित्वाद्यस्य फलस्यार्थित्वमभिलाषुकत्वे यदर्थित्वं, तस्मात्प्रवर्तते तत्तदीयसाधनेषु यत्नं कुरुते तत्तु तत्पुनः साध्यं कर्तव्यतयेष्टं प्रयोजनं फलं यस्य वाञ्छया कृत्येषु प्रवर्तते तत्प्रयोजनमित्यर्थः । प्रयोजनमूलत्वाच्च प्रमाणोपन्यासप्रवृत्तेः प्रमेयान्तर्भूतमपि प्रयोजनं पृथगुपदिश्यते ।। २५ ।। नैयायिक ब्रह्म को परिणामी नहीं मानते है । उसके समर्थन में वे बताते है कि, यदि ब्रह्म का सर्वात्मकरुप में परिणाम हो जाये तो ब्रह्म का नाश हो जायेगा। दूध का दहीं के रुप में परिणाम होने के बाद दूध नष्ट ही हो जाता है। यदि ब्रहा के एक भाग में परिणाम होता हो, तो ब्रह्म को भागवाला (अवयवी ) मानना पडेगा । और जो वस्तु भागवाली होती है, वह अनित्य ही होती है। जबकि ब्रह्म नित्य है । उपरांत ब्रह्म अविकारी है। विवर्तरुप परिणाम भी ब्रहा में नहीं हो सकता है। इसलिए समजा जा सकता है कि, जीव ब्रह्म में से बना हुआ नहीं है परन्तु अनादि अनंत है। इसलिए मुक्त अवस्था में जीव ब्रह्म में लीन नहीं होता है, परन्तु ब्रह्म के साथ संयुक्त रहता है। बौद्ध ने क्षणिक ज्ञानो की संतान = परंपरा का सदा के लिये उच्छेद होना, उसको निर्वाण (मोक्ष) कहा I बौद्धमत में क्षणिकज्ञान की संतति आत्मा है। इसलिए आत्मा का उच्छेद होना वही उनके मत में निर्वाण (मुक्ति) है। यह बात युक्त नहीं है । क्योंकि वह तो "अमृत्युपद" है। अर्थात् उसकी कभी भी मृत्यु नहीं होती । रागादि रहित जो आत्मस्वरुप है, वही मुक्ति अवस्था है । मुक्ति अवस्था में आत्मा को प्राण संबंधित भूख ( क्षुधा ) और प्यास (पिपासा), मन संबंधित लोभ और मोह तथा शरीर संबंधित शीत और आतप, ये छ: उर्मियाँ (अनुभूतियाँ) नहीं होती है और इसलिए शिव कहा जाता है । (२९) न्यायसूत्र में संशय का लक्षण इस अनुसार किया गया है । समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्था तश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशय । ॥१-१-२३ । अर्थात् साधारण धर्म और असाधारणधर्म के ज्ञान से परस्परविरुद्ध वाक्यो से उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था से विशेषधर्म का स्मरण होने से अथवा विशेषधर्म की अपेक्षा रखते हुए एक ही अर्थ में विरुद्ध धर्म का अवलंबन करनेवाला जो ज्ञान है, उसे संशय कहा जाता है । (C-15-16 ) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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