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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन
प्रवृत्ति : वचन, मन और काया का व्यापार, कि जो शुभाशुभ फल को देता है, वह प्रवृत्ति कहा जाता है।
राग, द्वेष और मोह, ये तीन (२४) दोष है, इर्ष्या, असूया, क्रोध आदि का तीन में ही अन्तर्भाव होता है और इन दोषो के कारण ही संसार है । पूर्वकालीन देह - इन्द्रियादिक के समूह (संघात) का त्यागपूर्वक (त्याग करके)
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का भी संबंध होना चाहिए। मनसंयोगी जो इन्द्रिय जिस अर्थ के साथ संबंध पायेगा, उस इन्द्रिय द्वारा वही अर्थ का ही ज्ञान होगा, दूसरे अर्थो का नहीं, क्योंकि उस वक्त घ्राणआदि इन्द्रियो के साथ मन का संबंध नहीं है । और उसके द्वारा मन सूक्ष्म (अणु) है, वह भी सिद्ध होता है । यदि वह व्यापक हो, तो उसका संबंध सभी इन्द्रियो के साथ होगा, परन्तु वह नहीं है। इसलिए मन सूक्ष्म (अणु) है, वैशेषिक सूत्र में भी मन को अनु कहा है । तदभावाच्चाणु मनः ||७|१|२५||
उपरांत, इस न्यायसूत्र में मन के अस्तित्व का भी साधन है और उसके अंदर रहा हुआ असाधारण धर्म लक्षण के रुप में बताया है। “युगपज्ज्ञानाजनकत्वम्" वह मन का असाधारण धर्म है । मन द्रव्य है और श्रीकणादने नवद्रव्यो में उसकी गणना की है। मन अवयव रहित द्रव्य होने से नित्य है । अर्थात् उत्पत्ति - विनाश से रहित है । संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और वेग ये आठ मन के सामान्यगुण है ।
नैयायिको ने माना है कि, प्रत्येक आत्मा में एक - एक मन ( उस आत्मा के) कर्मानुसार परमात्माने योजित किया है। मन को ही अंत:करण कहा जाता है । मन ही विषयजन्य सुख - दुःख का कारण है। आत्मा की इच्छा तथा जीवन-जनक प्रयत्न मन एक जगह से दूसर जगह पे जाता है। तथा धर्म-अधर्म रुप अदृष्टकारण की वजह से मरण के बाद दूसरे शरीर में जाता है और आत्मा के भोग का साधन बनता है I
(२३) न्यायसूत्र में कहा है कि "प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भेति । " ॥११- १७॥ राग-द्वेष से प्रेरित होके जो वाणी का उच्चार किया जाता है, उसे वाचिकप्रवृत्ति कहा जाता है। रागद्वेष से प्रेरित होके मन में जो चिंतन किया जाता है, उसे मानसिक प्रवृत्ति कहा जाता है । रागद्वेष से प्रेरित होके शरीर द्वारा जो क्रिया की जाती है, उसे शारीरिक प्रवृत्ति कहा जाता है
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राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति बन्ध-जनक नहीं होती है। जीवन्मुक्त पुरुष की प्रवृत्ति रागद्वेषरहित होती है। यहाँ सूत्र में राग-द्वेषपूर्वक की प्रवृत्ति लक्षित है। और वह संसारचालक है। इसलिए वह हेय (त्याज्य) है। जन्म से मृत्यु पर्यन्त जितनी क्रियाएँ राग-द्वेषपूर्वक हुई हो, वे सभी ही स्थिर संस्कार आत्मा में पाडती है और ये संस्कार आखिर में मरण को उत्पन्न करके जाति, आयुष्य और भोगरुप फल उत्पन्न करते है ।
(२४) न्यायसूत्र में कहा है कि " प्रवर्तनालक्षणो दोषाः ।।१-१-१८।। - प्रवृत्तिजनकत्व यह दोष का लक्षण है । यहाँ सूत्र में दोष लक्ष्य पदार्थ है और प्रवृत्तिजनकत्व लक्षण है।
कहने का मतलब यह है कि, राग-द्वेष और मोह के कारण ही मनुष्य प्रवृत्ति करता है । ये तीनो को दोष नाम दिया गया है। क्योंकि “दुष्यति आत्मा येन स दोषः ।" जिससे आत्मा दूषित होता है वह दोष अर्थात् आत्मा अपना वास्तविक स्वरुप जिसके कारण जान सकता नहीं है, इसलिए उसको दोष कहा जाता है। ये तीनो मोक्ष का प्रतिबंधक है । जब तक ये तीनो है, तब तक वैराग्य का स्फुरण नहीं होता है और उसके बिना तत्त्वज्ञान संभवित नहीं है और तत्त्वज्ञान के सिवा मुक्ति भी नहीं मिल सकती ।
अनुकूल अर्थ की अभिलाषा को राग कहा जाता है। काम, स्पृहा, तृष्णा तथा लोभ, ये सब राग के ही प्रकार है । प्रतिकूल अर्थ को सहन न करना, उसे द्वेष कहा जाता है। क्रोध, इर्ष्या, असूया, द्रोह और आमर्ष, ये सब द्वेष के प्रकार है। वस्तु का वास्तविक ज्ञान न होना वह मोह है । मिथ्याज्ञान, विचिकित्सा, मान और प्रमाद, ये चारो मोह के प्रकार है ।
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