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________________ १७८ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन ___ इन्द्रियार्थसन्निकर्षे सत्यपि C-"युगपज्ज्ञानानुत्पादादान्तरसुखादि विषयोपलब्धेश्च बाह्यगन्धादिविषयोपलब्धिवत्करणसाध्यत्वादान्तरं करणं मनोऽनुमीयते, तत्सर्वविषयं तञ्चाणु वेगवदाशुसंचारि नित्यं च-8६ । वाग्मनःकायव्यापारः शुभाशुभफलः प्रवृत्तिःC-9 ७ । रागद्वेषमोहास्त्रयो दोषाःC-10, इर्ष्यादीनामेतेष्वेवान्तर्भावः, तत्कृतश्चैष संसारः ८ । देहेन्द्रियादिसंघातस्य प्राक्तनस्य त्यागेन संघातान्तरग्रहणं प्रेत्यभावःC-11, एष एव संसारः ९ । C-12प्रवृत्तिदोषजनितंसुखदुःखात्मकं मुख्यं फलं,तत्साधनंतुगौणम् १० । पीडासंतापस्वभावजं दुःखम्, C-13फलग्रहणेनाक्षिप्तमपीदं सुखस्यापि दुःखाविनाभावित्वात् दुःखत्वभावनार्थमुपदिश्यते ११ । आत्यन्तिको दुःखवियोगोऽपवर्गः, C-14सर्वगुणवियुक्तस्यात्मनः स्वरूपेणावस्थानंसुखदुःखयोविवेकेन हानस्याशक्यत्वात् दुःखंजिहासुः सुखमपिजह्याद् । यस्माज्जन्मजरामरणप्रबन्धोच्छेदरूपः परमः पुरुषार्थोऽपवर्गः, सच तत्त्वज्ञानादवाप्यते १२ ।।२४ ।। टीकाका भावानुवाद : (६) मन : सर्वपदार्थो के साथ इन्द्रिय का संयोग होने पर भी एकसाथ सभी रुपादि ज्ञानो की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए ज्ञान तब ही होता है कि, जब जिस इन्द्रियो का मन के साथ संयोग (मिलन) हो, इसलिए मन के साथ संयोगवाली (मिली हुई) इन्द्रियों से ज्ञान उत्पन्न होता है, दूसरे से नहि, उसी तरह एकसाथ ज्ञानो की अनुत्पत्ति से मन का सद्भाव सिद्ध होता है। तथा जैसे गंधादि बाह्यपदार्थो की उपलब्धि करण (साधन) रुप इन्द्रियो के बिना नहीं हो सकती, वैसे अंतरंगसुखादि विषयो की उपलब्धि के लिए भी एक साधकतम करण की आवश्यकता है। वह करण मन ही हो सकता है। इस तरह से मन का अनुमान हो सकता है। (२२)मन सर्वपदार्थो को विषय बनाता है, अणुरुप है, वेगवान होने से बहोत ही शीघ्र संचार करनेवाला है तथा नित्य है। में आत्मा का प्रतिबिम्ब पडता है। इसलिए बुद्धि जड होने पर भी चेतन जैसी लगती है और अर्थ को जानती है जैसे चन्द्र स्वयं प्रकाशरहित होने पर भी सूर्य के तेज को ग्रहण करके प्रकाशित बनता है और जगत को प्रकाशित करता है, वैसे बुद्धि में जो आत्मा का प्रतिबिंब पडता है वही उपलब्धि । नैयायिक सूत्रकार को सांख्यो की उपरोक्त य नहीं है। बद्धि प्रकृति का-गुणो का विकार नहीं है। परन्तु आत्मा का गुण है, इसलिए बुद्धि और ज्ञान भी एक ही है। (२२) न्यायसूत्र में कहा है कि "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" ॥१-१-१६॥ अर्थात् एकसाथ ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है। वह मनका ज्ञापक है। कहने का आशय यह है कि, एक फल में रुप, रस, गंध और स्पर्श, ऐसे चार अर्थ (विषय) है। रुप आदि चारों विषय के साथ चारों इन्द्रिय (चक्षु, रसन, घ्राण और त्वक्) का एक साथ संबंध होने पर भी चारों ज्ञान एकसाथ नहीं होते, परन्तु अनुक्रम से ही होते है। इसका कारण क्या है ? उसको सूत्रकार बताते है कि, ज्ञान उत्पन्न करने में केवल बाह्य इन्द्रियाँ और रुपादि अर्थो (विषयो) के साथ का संबंध ही पर्याप्त नहीं है। परन्तु उसके साथ मन (C-6-7-8-9-10-11-12-13-14)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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