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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन
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इस तरह से पाँच रुपादि (१९)अर्थो को जानना । (२०)उपलब्धि और ज्ञान बुद्धि के पर्यायवाचि (समानार्थी) शब्द है। यह बुद्धि क्षणिक और भोग के स्वभाववाली होने से संसार का कारण है। इसलिए हेय है।
(१९) पृथ्वी, जल और तैजस्, ये तीन द्रव्यो का ग्रहण बाह्य इन्द्रियो से होता है और बाकी के छ: द्रव्यो का अनुमान से
ग्रहण होता है। गंधादि गुणो का ग्रहण घ्राणादि इन्द्रियों से होता है। प्रशस्तपाद भाष्य में गुणो के दो विभाग किये है। रुप, रस, गंध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना और शब्द विशेषगुण है। तथा संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, नैमितिक द्रवत्व और वेग सामान्यगुण है। स्वाधारभूत द्रव्य को जो गुण अन्य द्रव्यो से अलग करके बताये उसे विशेष गुण कहा जाता है। शंका : पृथ्वी में गंधआदि चार गुण होने पर भी घ्राण इन्द्रिय से ही गंध का ग्रहण कैसे होता है ? समाधान :न्यायसूत्र में “तव्यवस्थापनं तु भूयस्त्वात्" ॥३।१७१॥ सूत्र से उसका कारण बताया गया है। यहाँ भूयस्त्व - प्रधानता । पृथ्वी में गंध गुण की प्रधानता है और घ्राणेन्द्रिय में भी गंध गुण की प्रधानता है। इसलिए पृथ्वी और घ्राणेन्द्रिय का कार्यकारण भाव मानना चाहिए । उसी तरह से रसना इन्द्रिय और जलका तथा चक्षुरिन्द्रिय और तेज का भी कार्यकारणभाव मानना चाहिए । इन्द्रिय की रचना में जीवात्मा का अदृष्ट भी कारण के रुप में है।
इसलिए समजा जा सकता है कि, पृथ्वी आदि द्रव्य और गंधादि गुण परस्पर भिन्न है । परन्तु समवाय संबंध के कारण दो फल की तरह अलग-अलग महसूस नहीं कर सकते । (२०) न्यायसूत्र में कहा है कि "बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ।" ॥१।१।१५।। अर्थात् बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान
ये तीनो एक अर्थ के वाचक है।
इन्द्रियो का अर्थ के साथ संबंध होने से आत्मा के अंदर जो अर्थ का अभौतिक प्रकाश पैदा होता है, उसका नाम बुद्धि है और वही ज्ञान है। यदि ज्ञान को बुद्धि का धर्म माना जाये, तो बुद्धि को चेतन माननी चाहिए और उसे चेतन मानी जाये, तो शरीर में एक पुरुषरुप चेतन आत्मा और बुद्धिरुप चेतना = आत्मा, ऐसे दो चेतन होंगे। परन्तु शरीर में एक ही आत्मा सर्वयुक्ति और प्रमाण से सिद्ध है। ___ इस सूत्र में उपलब्धि और ज्ञान, ये बुद्धि के पर्यायवाचक शब्द है। और वे समान और असमानजातीय अर्थो से बुद्धि को अलग करते होने से लक्षणवाचक हो सकते है। जो लोग बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान को भिन्न-भिन्न मानते है, वह अयोग्य है, ऐसा बताने के लिए सूत्रकार ने बुद्धि के पर्यायवाचक शब्दो को लक्षणवाचक के रुप में रखे है।
(सांख्यमत के अनुयायि तीन शब्दो के भिन्न-भिन्न अर्थ करते है।) बुद्धि : सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ये तीन गुणो का जो विकार है, वही बुद्धि और उसका दूसरा नाम "महत्" तत्त्व है। तीनो गुण जड होने से बुद्धि भी जड है। तीनो गुण नित्य होने से उसका परिणाम जो बुद्धि है, वह भी नित्य है, क्योंकि सांख्यमत में परिणाम और परिणामी भिन्न नहीं माने जाते । ज्ञान : बुद्धि, जो इन्द्रिय द्वारा अर्थरुप में परिणमित होती है, वही ज्ञान है अर्थात् बुद्धि की जो कुछ खास प्रकार की वृत्ति, उसका नाम ज्ञान है। इसलिए घटज्ञान, पटज्ञान आदि बुद्धि की वृत्तियाँ मानी जाती है। उपलब्धि : आत्मा यह चितिशक्ति है, और वह अपरिणामी है। उसका बुद्धि के साथ सदैव सन्निधान होने से बुद्धि
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