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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन
घ्राण, रसन, चक्षु, त्वक् और श्रोत्र, इस प्रकार (१८)पाँच इन्द्रियाँ है। रुप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ऐसे पाँच अर्थ (विषय) है। उसमें गंध, रस, रुप और स्पर्श ये चार पृथ्वी के गुण है। रुप, रस, स्पर्श ये तीन जल के गुण है। रुप और स्पर्श तैजस् के गुण है। एक स्पर्श वायु का गुण है और शब्द आकाश का गुण है।
इन्द्रियका आश्रय शरीर है। शरीर की वजह से ही इन्द्रियाँ अपने अपने कार्य में प्रवृत होती है। यदि शरीर न हो तो निराधार = स्वतंत्र बनी हुई इन्द्रिया अपना अपना कार्य नहीं कर सकेगी। शरीर में शक्ति होगी, तो इन्द्रियो में ग्राहकशक्ति होती है। और शरीर अत्यंत क्षीण होगा, तो इन्द्रियाँ की ग्राहकशक्ति भी मंद पड जाती है। इस प्रकार शरीर इन्द्रियो को मदद करनेवाला होने से शरीर इन्द्रियाँ का आश्रय माना जाता है। आश्रय का अर्थ यहाँ इन्द्रियों का समवायिकारण (उपादानकारण) नहीं समजना है। जिसकी वजह से इन्द्रियाँ बाह्यपदार्थो के साथ संबंध पाकर सुख-दुःखस्वरुप अर्थ का कारण बनती है, वही
शरीर । यहाँ अर्थ शब्द से सुख-दुःख ही समजना, परन्तु रुपादि अर्थ नहीं । (१८) न्यायसूत्र में बताया है कि "घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः ॥१-१-१२।। अर्थात् घ्राण, रसन,
चक्षु, त्वक् और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ है। उसकी उत्पत्ति अनुक्रम से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश में से होती है।
यहाँ बाह्य इन्द्रियो का लक्षण अभीष्ट होने से मन का ग्रहण किया नहीं है। क्योंकि मन आंतर इन्द्रिय है। इस सूत्र में बाह्य इन्द्रियाँ जो लक्ष्य के रुप में है, उसे "भूतेभ्यः" शब्द द्वारा सूचित करता है। भूतेभ्यः' शब्द इन्द्रियो के समावायिकारण के रुप में सत्र में इस्तेमाल हआ है। मन आंतर इन्द्रिय और नित्य होने से उसका उपादानकारण (समवायिकारण) कोई भी महाभुत संभवित नहीं हो सकता। जो लोग (सांख्य) इन्द्रियों का उपादान कारण अहंकार है, ऐसा मानते है, उस मत का खंडन भी "भूतेभ्यः" कारण-वाचक शब्द रखने से हो जाता है। नैयायिक इन्द्रियों को अहंकार में से उत्पन्न हुई नहीं मानते है। परन्तु पाँच महाभूतो में से उत्पन्न हुई मानते है। सूत्र ३-१-६३ में कहा है कि, "भूतगणविशेषोपलब्धेस्तादात्म्यम" अर्थात पृथ्वी आदि भतो के विशेष गणो की उपलब्धि (अभिव्यक्ति) का कारण होने से इन्द्रियो के कारण पृथ्वी आदि पाँचभूत है । (सांख्यमत में पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन, ऐसे ग्यारह इन्द्रियाँ बताई है।)
इन्द्रियों की संख्या के विषय में श्री वाचस्पतिमिश्र ने न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका में कहा है कि इन्द्रियाँ पाँच होने से हाथ, पैर, पायु, उपस्थ और वाणी में इन्द्रियत्व नहीं है, वह सूचित किया है। क्योंकि उसमें इन्द्रिय का लक्षण संगत नहीं होता है। "जो शरीर के साथ संयुक्त हो, संस्कारदोष से शून्य हो और साक्षात् ज्ञान का साधन हो, उसे ही इन्द्रिय कहा जाता है।" हाथ आदि में यह लक्षण संगत नहीं होता है। यदि सांख्यो; ऐसा कहेंगे कि, उक्त लक्षण तो ज्ञानेन्द्रियो का है और हाथ आदि तो कर्मेन्द्रिय है, तो सांख्यो को कर्मेन्द्रिय का लक्षण कहना चाहिए। यदि कर्मेन्द्रिय का लक्षण "शरीर में जो आश्रित हो और असाधारण कार्य करे वह कर्मेन्द्रिय ।" ऐसा कहोंगे तो आपको (सांख्योको) कहना चाहिए कि "हाथ आदि में असाधारण कार्य क्या है ?" आप ऐसा कहे कि "बोलना वह वाणी का, ग्रहण करना वह हाथ का, चलना वह पैर का, उत्सर्ग और आनन्द यह पायू और उपस्थ का असाधारण कार्य है" तो सांख्यो की यह ठीक नहीं है। क्योंकि ग्रहण करने रुप कार्य तो जैसे हाथ से होते है, वैसे मंह से भी होते है. इसलिए वह असाधारण कार्य नहीं है। उपरांत कंठ. हृदय. आमाशय. पक्वाशय भी असाधारण कार्य करते है. तो उसको भी इन्द्रिया माननी पडेगी. इसलिए कर्मेन्द्रियों का लक्षण बाधना वह निरर्थक है, इसलिए समजा जा सकता है कि नैयायिकों, जो ज्ञान उत्पन्न करने का असाधारण कारण है, उसको ही इन्द्रियाँ मानते है।
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