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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन “आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनः प्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गभेदेन द्वादशविधं तदिति प्रमेयम् । (२-१-९) । अर्थात् आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, इन्द्रिय के विषय, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग, ये बारह प्रमेय है। इन बारह प्रमेयो में शरीर, इन्द्रिय, अर्थ (विषय), बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल और दुःख ये १० (दस) प्रमेय हेय (त्याज्य) है। अपवर्ग उपादेय (ग्राह्य) है । परन्तु आत्मा कथंचित् हेय और कथंचित् उपादेय है । सुखदुःखादि भोक्तृपन से हेय है और उन्मुक्तपन से उपादेय है। वहाँ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख और ज्ञानादि का आश्रय आत्मा है। सचेतनत्व, कर्तृत्व, सर्वगतत्व आदि धर्मों के द्वारा आत्मा प्रतीत होता है । (१) (२) (१७)शरीर : भोक्ता के भोग का जो आयतन (स्थान) है, वह शरीर कहा जाता है। (यह व्याख्या न्यायकंदलीकार के मतानुसार है ।) परकीय आत्मा का तो मानसप्रत्यक्ष भी नहीं हो सकता । उपरोक्तसूत्र में सूत्रकार ने आत्मा के अनुमान का प्रकार बताया है। इच्छादि आत्मा के असाधारण धर्म है । इसलिए वह आत्मा का लक्षण हो सकता है । इच्छादि गुण शरीर में रहते न होने से शरीर से अन्य आत्मा का अनुमान हो सकता है । इच्छादि गुण शरीर में नहीं है। यदि शरीर में माने, तो मृतशरीर में भी इच्छादि की आपत्ति आयेगी । इसलिए इच्छादि शरीर के गुण नहीं है । मन में भी इच्छादि की उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि मन तो इच्छाआदि को उत्पन्न करने का साधन है। जो साधन हो वह कार्य का आधार ( उपादान कारण ) नहीं हो सकता । पृथ्व्यादि नवद्रव्यों में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल और दिशा, ये द्रव्यो में से कोई भी द्रव्य इच्छादि का आधार नहीं है, यह तो स्पष्ट है और मन तो साधन है। इसलिए आधार नहीं बन सकता । सामान्य नियम है कि साधनजन्य क्रिया साधन में नहीं परन्तु अन्य में बनती है । इसलिए मनरुप साधनजन्य इच्छादि मन में नहीं है, परन्तु अन्य में होनी चाहिए। उपरांत इच्छादिगुण होने के कारण उसका आधार भी होना चाहिए। इसलिए आधार के रुप में नौंवा द्रव्य आत्मा सिद्ध होता है । १७५ में चाहता हूं, मैं जानता हूं, ऐसी प्रतीति भी होती है, इसलिए आत्मा ही इच्छादि गुणो का उपादानकारण (समवायिकारण) है। ऐसा पारिशेष अनुमान से सिद्ध होता है । इस सूत्र से परमात्मा का लक्षण भी सूचित होता है। वह इस अनुसार जिस के अंदर नित्य इच्छा है, नित्य प्रयत्न है, नित्य सुख है, नित्यज्ञान है, वह परमात्मा ईश्वर है, आत्मा का स्वरुप समजे बिना मुक्ति नहीं मिल सकती । मुक्त अवस्था में भी आत्मा अपने स्वरुप में स्थित रहता है, इसलिए आत्मस्वरुप उपादेय पक्षमें रहता है। (१७) न्यायसूत्रानुसार शरीर का लक्षण "चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम्" (१-१-११) अर्थात् चेष्टा, इन्द्रिय और अर्थ का जो आश्रय है उसे शरीर कहा जाता है। - यदि चेष्टा का अर्थ केवल क्रिया ही लिया जाये तो वृक्ष - रथ गाडी आदि में भी क्रिया दिखाई देती है। इसलिए उसको भी शरीर कहने की आपत्ति आयेगी । इसलिए यहाँ "चेष्टा" शब्द विशेष प्रकार की क्रिया का वाचक है, ऐसा समजना चाहिए। Jain Education International प्राप्त करने इच्छित अर्थ और त्याग करने इच्छित अर्थ को ध्यान में रखकर इप्सा (पाने की इच्छा) और जिहासा (छोड़ने की इच्छा) से प्रेरित पुरुष का व्यापार = प्रयत्न जिसके कारण होता है वह शरीर । अर्थात् चेष्टा का अर्थ पुरुष के अंदर होता प्रयत्न लेना और यह प्रयत्न पुरुष (जीवात्मा) शरीर के कारण ही कर सकता है, इसलिए चेष्टा का आश्रय शरीर कहा जाता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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