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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका भूमिका उपोद्घात : __ जगत के सर्व जीव दु:खनिवृत्ति और सुखप्राप्ति की तीव्र इच्छा कर रहे है और इसके लिए सतत प्रयत्नशील हैं । फिर भी वास्तविकता यह है कि, सभी की यह इच्छा पूर्ण नहीं होती है । क्योंकि मार्ग सञ्चा नहीं हैं । मिथ्याज्ञान के प्रभाव से भौतिक भोग, सत्ता और संपत्ति में से स्वइष्ट की पूर्ति करने के लिए जीव तडप रहे है । उसके योग से दु:खनिवृत्ति और सुखप्राप्ति होने के स्थान पर दुःखवृद्धि और सुखनाश होता हैं । परम कारुणिक श्री तारक तीर्थंकर भगवान जगत को यही समजाते हैं कि, दुःखरहित एवं शाश्वतसुख आत्मा में हैं, इन्द्रियों के विषयो में, संपत्ति में और सत्ता में नहीं हैं । उसमें से तो दुःखमिश्रित और अल्पकालीन सुख मिलनेवाला है । इतना ही नहीं, ये भौतिक सुख, वासना की भूख को बढानेवाले है और अतृप्ति की आग में सुलगानेवाले हैं । नि:स्वार्थ परोपकार परायण तारक तीर्थंकर भगवान जगत की इस भल को सधारने और अनंत आत्मसुख की प्राप्ति कराने के लिए भवोदधितारक श्री धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं । जो जीव जागे, तारक तीर्थंकरो का संदेश ग्रहण कर ले और प्रभु ने दिखाये हुए मार्ग पर आगे बढे, उनको आत्मा के अनंतसुख की प्राप्ति हुइ और भिखारीपन मिटकर परमात्मापन प्राप्त हुआ। आज पर्यन्त अनंता आत्मा, आत्मा के अनंत सुख के स्वामी बनकर मोक्ष का आनंद ले रहे है। आज पर्यंत अनंता तीर्थंकर हो गये और भविष्य में भी अनंता तीर्थंकर(1) होगे । प्रत्येक तीर्थंकरो का यही संदेश श्री धर्मतीर्थ की स्थापना अर्थात् मोक्षमार्ग की स्थापना । जिस मार्ग पर जीव के संसार के शरीरादि-स्त्री आदि बंधन नाश हो और अंत में सर्व कर्म से मुक्ति हो, उसे मोक्षमार्ग कहा जाता हैं । प्रभुने स्थापित किये हुए मोक्षमार्ग का स्वरूप समजाते हुए पू. वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी महाराजा तत्त्वार्थाधिगमसूत्र नाम के महान ग्रंथ में बताते है कि - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।।१-१।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र : ये रत्नत्रयी के संमिलन को मोक्षमार्ग कहा जाता है । श्री जिनोक्त तत्त्वो की रुचि (श्रद्धा) को सम्यग्दर्शन कहा जाता हैं । तत्त्वो के यथावस्थित अवबोध को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है और तत्त्वपरिणति को सम्यक्चारित्र कहा जाता है ।(2) यह तारक तत्त्वत्रयी के यथार्थ सेवन से सर्व कर्मों का नाश होता हैं । उस तत्त्वत्रयी में सम्यग्दर्शन महत्त्व का गुण हैं। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यग् अर्थात् निर्मल नहीं बन सकते हैं । सम्यग्दर्शन से शुद्ध बने हुए ज्ञान-चारित्र ही कर्मनिर्जरा करने के लिए समर्थ बनते हैं । सम्यग्दर्शन अर्थात यथार्थ दर्शन । जिससे जगत का यथार्थ दर्शन हो उसे सम्यग्दर्शन कहा जाता हैं । जैसा है वैसा दिखाई दे, उसे यथार्थ दर्शन कहा जाता हैं । जगत के पदार्थ जैसे स्वरूप में है, वैसे स्वरूप में दर्शन करना उसे 1. जिस जीव को जगत के तमाम जीवों को संसार से पार उतारने की भावना हो, वह जीव तीर्थंकर नामकर्म का बंध करे और तीर्थंकर बनकर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं । (योगबिन्दु) 2. यथावस्थिततत्त्वानां, संक्षेपाद्विस्तरेण वा । योऽवबोधस्तमत्राहुः, सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ।।१६।। रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यकश्रद्धानमुच्यते। जायते तन्निसर्गेण, गुरोरधिगमेन वा ।।१७।। सर्वसावद्ययोगानां, त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादि-व्रतभेदेन पञ्चधा।।१८ ।। (श्री हेमचन्द्राचार्यकृतयोगशास्त्र ।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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