________________
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
२७
सम्यग्दर्शन कहा जाता हैं । जो पदार्थ हेय (आत्म-अहितकर होने से त्याज्य) और जो पदार्थ उपादेय (आत्म-हितकर होने से ग्राह्य) हैं, उसे, उसी तरह से ही देखने-मानने को सम्यग्दर्शन कहा जाता हैं । ___ सारांश में, हेय-उपादेय, कर्तव्य-अकर्तव्य, प्राप्तव्य-अप्राप्तव्य पदार्थो का यथार्थ दर्शन हो उसे सम्यग्दर्शन कहा जाता हैं । सम्यग्दर्शन की शुद्धि की नींव के ऊपर ही सम्यक् चारित्र की इमारत का निर्माण होता है । सम्यग्दर्शन की शुद्धि प्राप्त करने के लिए जगत के सभी पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ बोध होना आवश्यक हैं । इसलिए ही जैनदर्शन के ग्रंथकार महर्षिओं ने चार अनुयोग करके जगतवर्ती सभी हेयोपादेय पदार्थों का स्वरूप अपने ग्रंथों में समजाया हैं । ___ अनुयोग अर्थात् सूत्र में पडे हुए अर्थ का व्याख्यान । सूत्रो की रचना श्री गणधर भगवंतोने की है और श्री तारक तीर्थंकरो ने इस सूत्रो के अर्थ की प्ररुपणा की हैं । भगवान ने जो अर्थो की प्ररुपणा की हैं, उसे श्री गणधर भगवंतो ने सूत्रो में संगृहित किये हैं |(3) सूत्रो में गर्भित रहे हुए अर्थ को स्पष्ट करने के लिए जो व्याख्यान हो उसे अनुयोग कहा जाता हैं। इस अनुयोग के चार प्रकार हैं । (१) चरणकरणानुयोग, (२) गणितानुयोग, (३) धर्मकथानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग ।
जिस में मोक्षमार्ग के साधको की आचार संहिता का वर्णन आता है अर्थात् मूलगुण और उत्तरगुण स्वरूप आचरणा का निरूपण आता है, उस सूत्रों के व्याख्यान को चरणकरणानुयोग कहा जाता हैं । जिस में गणित - संख्या इत्यादि विषय आते हैं, उस सूत्रों के व्याख्यान को गणितानुयोग कहा जाता है । जिसमें तारक मोक्षमार्ग को समजाने के लिए जो महापरुषोने उस मार्ग का सेवन करके मोक्ष प्राप्त किया हैं या उस तरफ प्रयाण करके मोक्ष में पहँचने की तैयारी में हैं, ऐसे महापुरुषो के दृष्टांतो का अन्तर्भाव होता हैं, उसे धर्मकथानुयोग कहा जाता है । जिसमें जीवादि तत्त्वो का सूक्ष्मता से स्वरूप स्पष्ट किया गया हैं, उस सूत्रो के व्याख्यान को द्रव्यानुयोग कहा जाता हैं।
यहाँ उल्लेखनीय है कि, ये(4) चारो अनुयोग आत्महित के लिए उपयोगी है । उसमें मुख्य चरणकरणानुयोग हैं । बाकी के तीनो अनुयोग उसकी बाइसमान हैं - उसकी रक्षा के लिए हैं । फिर भी हकीकत यह हैं कि, चरणकरणानुयोग के रहस्यो को प्राप्त करने के लिए द्रव्यानुयोग का अभ्यास अति आवश्यक हैं । वस्तु के स्वरूप को समग्रतया जाने बिना हेय की निवृत्ति और उपादेय की प्रवृत्ति तात्त्विक नहीं बन सकती हैं । वस्तु के स्वरूप में भ्रान्ति हो तो तादृश प्रवृत्ति-निवृत्ति भी भ्रमजन्य ही बनी रहती हैं । जैसे मार्ग के ज्ञान में जिसको भ्रम होता है, उसका मार्ग गमन दृढता से नहीं होता हैं और कभी भी गलत मार्ग पर चले जाते हैं, वैसे हेयोपादेय तत्त्वो के स्वरूप में भ्रम हो तो, कभी भी हेय उपादेयरूप से और उपादेय हेयरूप से पकडा जाता हैं और उसके योग से मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं । इसलिए पदार्थ के स्वरूप के विषय में आंशिक भी भ्रान्ति हो तो सम्यगदर्शन की प्राप्ति-शुद्धि नहीं हो सकती हैं ।
इसी बात को दृढ करते हुए काशीस्थित प्रकांड पंडितो के द्वारा न्यायाचार्य-न्यायविशारद पदवीयों से विभूषित पूज्यपाद महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा द्रव्य-गण-पर्याय के रास में फरमाते हैं कि -
3. अर्हद्वक्त्र-प्रसूतं, गणधररचितं द्वादशाङ्गं विशालं, चित्रं बह्वर्थयुक्तं, मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः । मोक्षारद्वारभूतं, व्रतचरणफलं,
ज्ञेयभावप्रदीपं, भक्त्या नित्यं प्रपद्ये, श्रुतमहमखिलं, सर्वलोकैकसारम् ।। 4. (१) चरणकरणानुयोग: आचार का प्रतिपादक ग्रंथ । आचारांग सूत्र आदि आगमग्रंथ । (२) गणितानुयोग-संख्या-मुहूर्त आदि
का प्रतिपादक ग्रंथ । चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि आगम ग्रंथ । (३) धर्मकथानुयोग:- बोधदायक कथा का प्रतिपादक ग्रंथ । ज्ञाताधर्मकथा आदि आगम ग्रंथ (४) द्रव्यानुयोग:-षड्द्रव्य के निरूपक ग्रंथ । सूत्रकृतांग, सम्मतितर्क आदि ग्रंथ । जैनदर्शन में ४५ आगमग्रंथ है। इसके अलावा अगणित प्रकरणग्रंथ उपलब्ध है । दार्शनिक ग्रंथ भी बहोत है । जैनदर्शन के ग्रंथो का नाम-सूचि भाग-१,
परिशिष्ट-४ में बताया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org