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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २४, नैयायिक दर्शन
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है वैसा गवय होती है।" यह वाक्यार्थ (अतिदेश वाक्यार्थ) का स्मरण होता है। उस वाक्यार्थ का स्मरण
और इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से गाय की समान यह है, इस अनुसार जो सारुप्यज्ञान (सादृश्यज्ञान) उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्षफल है। और वही सारुप्यज्ञान अव्यभिचारि आदि विशेषण से युक्त “स गवयशब्दवाच्यः" इस अनुसार संज्ञासंज्ञिसंबंध ज्ञान को (उपमिति को) उत्पन्न करता उपमान है । परन्तु संज्ञासंज्ञिसंबंध का ज्ञान (उपमिति) उपमान का फल है। उपरांत वह संज्ञा संज्ञि संबंध की प्रतिपत्ति (उपमिति) आगमिक नहीं है। क्योंकि उपमिति के जनक शब्द का अभाव है। अर्थात् जैसी गाय है वैसा गवय होती है यह वाक्यार्थ जब जंगल में गवय का प्रत्यक्ष हो तब साक्षात् नहीं होता, परन्तु वाक्यार्थ का स्मरणमात्र होता है। और गवय के पिंडविषय में जो हेयादि (त्याज्यादि) का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह इन्द्रियार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता होने से प्रत्यक्षफल है। ।।२३।।
अथ तुर्यं शाब्दमाह - अब चौथा शब्द (= आगम) प्रमाण को कहते है। ___(मू. श्लोक.)B-97शाब्दमाप्तोपदेशस्तु मानमेवं चतुर्विधम् ।
प्रमेयं त्वात्मदेहाद्यं बुद्धीन्द्रियसुखादि च ।।२४ ।। श्लोकार्थ :आप्तपुरुष का उपदेश शाब्दप्रमाण कहा जाता है। इस प्रकार चार प्रकार के प्रमाण है। उपरांत आत्मा, देह आदि तथा बुद्धि, इन्द्रिय, सुखादि (बारह) प्रमेय है। ॥२४॥
व्याख्या-शब्दजनितं शाब्दमागम इत्यर्थः । तुर्भिन्नक्रमे, शाब्दं तु प्रमाणमाप्तोपदेशः । आप्त एकान्तेन सत्यवादी हितश्च, तस्योपदेशो वचनमाप्तोपदेशः; । तज्जनितं तु ज्ञानं शाब्दस्य फलम् । मानं प्रमाणमेवमुक्तविधिना चतुर्विधम् । तदेवं प्रथमं प्रमाणतत्त्वं व्याख्याय संप्रति द्वितीयं प्रमेयतत्वं व्याख्यातुमाह-“प्रमेयं त्वात्मदेहाद्यम" । प्रमेयं तु प्रमाणफलम ग्राह्यं पुनरात्मदेहाद्यम, आत्मा जीवः, देहो वपुः, तावाद्यौ यस्य तदात्मदेहाद्यम् । बुद्धीन्द्रियसुखादि च प्रमेयम् । बुद्धिर्ज्ञानं, इन्द्रियं चक्षुरादिमनःपर्यन्तं, सुखं सातं तान्यादीनि यस्य तष्टुद्धीन्द्रियसुखादि । चकार आत्मदेहाद्यपेक्षया समुञ्चये । अत्र विशेषणद्वय आद्यशब्देनादिशब्देन च शेषाणामपि सप्तानां प्रमेयानां संग्रहो द्रष्टव्यः । तथा च नैयायिकसूत्रम् । “B-98आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गभेदेन द्वादशविधं तदिति प्रमेयम् । (१, १, ९) । B-99तत्र शरीरादिदुःखपर्यन्तं हेयं, अपवर्ग उपादेयः, आत्मा तु कथञ्चिद्धेयः कथञ्चिदुपादेयः, सुखदुःखादि भोक्तुतया हेयः तदुन्मुक्ततयोपादेय इति । तत्रेच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानादीनामाश्रय आत्मा -100 । सचेतनत्वकर्तृत्वसर्वगतत्वादिधर्मेरात्मा
(B-97-98-99-100)-- तु० पा० प्र० प० ।
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