SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन १६३ यहाँ जैसे अन्यत्र देखे हुए देवदत्तादिका, उससे दूसरे स्थान पे दर्शन होता है वह गतिपूर्वक है । अर्थात् देवदत्त की गति होने से गतिपूर्वक दो अलग स्थान पे देवदत्त का दर्शन होता है। वैसे सूर्य का वृक्ष के उपर दर्शन करने के बाद थोडे समय के बाद पर्वत के उपर दर्शन होता है वह गतिपूर्वक है। अर्थात् सूर्य की गति होने से (गतिपूर्वक) दो अलग स्थान पे सूर्य का दर्शन होता है। इस प्रकार से सूर्य की गति का अनुमान होता है। यहाँ (सूर्य का) अन्यत्र दर्शन गति का कार्य नहीं है। क्योंकि गति का कार्य तो संयोगादि है। परन्तु दूसरे कुछ लोग सामान्यतोदृष्ट अनुमान को इस तरह वर्णन करते है - समान काल के स्पर्श की प्रतिपत्ति अकार्यकारणभूत रुप से होती है। वह प्रतिपत्ति सामान्यतोदृष्ट अनुमान से पेदा हुई है। अर्थात् रुप देखकर तत्समानकालवर्ती स्पर्श का अनुमान करना वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। यहाँ रुप न तो स्पर्श का कार्य है, कि न तो कारण है। ___ अनुमान प्रयोग इस अनुसार है । "इदृशं स्पर्श इदम् वस्त्रम्, एवंविधरुपत्वात्, तदन्यतादृशवस्त्रवत्" अर्थात् इस वस्त्र का ऐसे प्रकार का स्पर्श है, क्योंकि कुछ खास प्रकार का रुप दिखता है। जैसे कि रुप-स्पर्शवाला अन्य वस्त्र । अथवा एक आम के पेड को (आमके) फलवाला देखकर जगत में आम के वृक्ष फल देते है, इस अनुसार प्रतिपत्ति (ज्ञान) होती है। प्रयोग इस अनुसार है जगति पुष्पिता चुताः चूतत्वात्, दृष्टचूतवत् । ___ अथवा B-90पूर्वेण व्याप्तिग्राहकप्रत्यक्ष तुल्यं वर्तत इति पूर्ववत्संबन्धग्राहकप्रत्यक्षेण विषयतुल्यत्वात्कथंचित्परिच्छेदक्रियाया अपि तुल्यतात्रानुमाने समस्तीति B-9 क्रियातुल्यत्ववतः प्रयोगः सिद्धः, तेन पूर्वप्रतिपत्त्या तुल्या प्रतिपत्तियंतो भवति, तत्पूर्ववदनुमानम् । इच्छादयः परतन्त्रा गुणत्वात् रूपादिवदिति । शेषवन्नाम परिशेषः, स च प्रसक्तानां प्रतिपेधेऽन्यत्र प्रसङ्गासंभवाच्छिष्यमाणस्य संप्रत्ययः, यथा गुणत्वादिच्छादीनां पारतन्त्र्ये सिद्धे शरीरादिषु प्रसक्तेषु प्रतिषेधः । शरीरविशेषगुणा इच्छादयो न भवन्ति, तद्गुणानां रूपादीनां स्वपरात्मप्रत्यक्षत्वेनेच्छादीनां च स्वात्मप्रत्यक्षत्वेन वैधात् । नापीन्द्रियाणां विषयाणां वा गुणा उपहतेष्वप्यनुस्मरणदर्शनात् । न चान्यस्य प्रसक्तिरस्ति, अतः परिशेषादात्मसिद्धिः । प्रयोगश्चात्र, योऽसौ परः स आत्मशब्दवाच्यः, इच्छाद्याधारत्वात् । ये त्वात्मशब्दवाच्या न भवन्ति, त इच्छाद्याधारा अपि न भवन्ति, यथा शरीरादयः । अत्र प्रत्यक्षेणागृहीत्वान्वयं केवलव्यतिरेकबलादात्मनः प्रमा शेषवतः फलम् । यत्र धर्मी साधनधर्मश्च प्रत्यक्षः साध्यधर्मश्च सर्वदाऽप्रत्यक्षः साध्यते तत्सामान्यतोदृष्टम्-92 । यथेच्छादयः परतन्त्रा गुणत्वाद्रुपवत् । उपलब्धिर्वा करणसाध्या क्रियात्वाच्छिदिक्रियावत् । असाधारणकारणपूर्वकं जगद्वैचित्र्यं चित्रत्वाञ्चित्रादिवैचित्र्यवदित्यादि सामान्यतोदृष्टस्यानेकमुदाहरणं मन्तव्यम् । (B-90-91-92) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy