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________________ १६२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन नामाऽकार्यकारणभूतेनाविनाभाविना लिगेन यत्र लिङ्गिनोऽवगमः, यथा बलाकया सलिलस्येति । प्रयोगस्त्वयं, बलाकाजहद्वृत्तिः प्रदेशो जलवान्बलाकावत्वात्, संप्रतिपन्नदेशवत् । यथा वान्यवृक्षोपरिदृष्टस्यादित्यस्यान्यपर्वतोपरिदर्शनेन गतेरवगमः । प्रयोगः पुनः रवेरन्यत्र दर्शनं गत्यविनाभूतं अन्यत्र दर्शनत्वात्, देवदत्तादेरन्यत्रदर्शनवत् । अत्र यथा देवदत्तादेरन्यत्र दृष्टस्यान्यत्र दर्शनं व्रज्यापूर्वं, तथादित्यस्यापीति, अन्यत्र दर्शनं च न गतेः कार्यं संयोगादेर्गतिकार्यत्वात् । अन्ये त्वेवं वर्णयन्ति । समानकालस्य स्पर्शस्य रूपादकार्यकारणभूतात्प्रतिपत्तिः सामान्यतोदृष्टानुमानप्रभवाः । अत्र प्रयोगः-ईदशस्पर्शमिदं वस्त्रमेवंविधरूपत्वात्, तदन्यतादृशवस्त्रवत् । एवं चूतं फलितं दृष्ट्वा पुष्पिता जगति चूता इति प्रतिपतिर्वा । प्रयोगस्तु पुष्पिता जगति चूताश्शूतत्वात्, दृष्टचूतवदित्यादि । टीकाका भावानुवाद : "शेषः कार्यं तदस्यास्ति तच्छेषवत्"। शेष अर्थात् कार्य. जिसके पहले है, उसे शेषवत् अनुमान कहा जाता है। अर्थात् कार्य के द्वारा कारण का अनुमान किया जाये, वह शेषवत् अनुमान है। जैसे कि, नदी में जल की बाढ़ देखने से वृष्टि का (बारीशका) अनुमान करना । यहाँ कार्य शब्द से कार्यधर्म - लिंग जानना। अनुमान प्रयोग इस अनुसार है - "उपरिवृष्टिमद्देशसंबन्धिनी नदी शीघ्रतरस्रोतस्त्वे फलफेनसमूहकाष्ठादिवहनत्वे सति पूर्णत्वात्, तदन्यनदीवत् ।" यहाँ नदी के बाढरुप कार्य द्वारा उपरीतनदेशसंबंधित वृष्टि -- बारीश (कारण) का अनुमान किया गया है। इसलिए शेषवत् अनुमान है। सामान्यतोदृष्ट अर्थात् कार्य-कारणभाव से भिन्न अविनाभावि लिंग द्वारा जहाँ लिंगि का ज्ञान होता है वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहा जाता है। जैसे कि, बगुलेकी पंक्ति द्वारा पानी का ज्ञान । जहाँ जहाँ (आकाश में) बगुले की श्रेणी है, वहाँ वहाँ (नीचे) पानी होता है। ऐसे कार्य कारणभाव से भिन्न अविनाभावि लिङ्ग (बगुले की पंक्ति) के द्वारा लिंगि ऐसे पानी का अनुमान किया जाता है। उसे सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहा जाता है। अनुमान प्रयोग इस अनुसार है। "बलाकाजहवृत्तिः प्रदेशो जलवान् बलाकावत्वात्, संप्रतिपन्नदेशवत् ।" इस अनुमान के द्वारा लिंग बलाका (बगुले) की पंक्ति के द्वारा लिंगि पानी का अनुमान किया जाता है। क्योंकि, सामान्य से जहाँ जहाँ बगुले की श्रेणी आकाश में उडती होती है, वहाँ (पानीवाला प्रदेश) होता है। ऐसी व्याप्ति प्राप्त होती है। __ अथवा (दूसरा उदाहरण देते है।) अन्य वृक्ष के उपर देखे हुए सूर्य को (कुछ समय के बाद) अन्य पर्वत के उपर देखने के द्वारा सूर्य की गति का अनुमान होता है। अनुमान प्रयोग इस अनुसार है "रवेरन्यत्र दर्शनं गत्यविनाभूतं, अन्यत्र दर्शनत्वात्, देवदत्तादेरन्यत्रदर्शनवत् ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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