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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन
टीकाका भावानुवाद : अब दूसरी तरह से तीनो अनुमानो को बताते है - (१) पूर्ववत् अनुमान : पूर्व के व्याप्तिग्राहक प्रत्यक्ष के साथ अर्थात् (पहले कार्य-कारण के साहचर्यरुप व्याप्ति जिसके द्वारा ग्रहण की जाती है, उस प्रत्यक्ष के साथ) समान वर्तित होता है, वह पूर्ववत् संबंध के ग्राहक प्रत्यक्ष द्वारा, विषय तुल्य होने से (अर्थात् पहले जो व्याप्ति के ग्रहण समय विषय था वही विषय अभी उपस्थिति हुआ होने के कारण विषय तुल्य होने से) कथंचित् परिच्छेदक्रिया की भी तुल्यता यहाँ अनुमान में होती है। इस अनुसार क्रियातुल्यत्ववालो का प्रयोग सिद्ध है। इसलिए पूर्व की प्रतिपत्ति (ज्ञान) से तुल्यप्रतिपत्ति (वर्तमानमें) जिससे होती है, उसे पूर्ववत् अनुमान कहा जाता है। जैसे कि, "इच्छादयः परतन्त्राः गुणत्वात् रुपादिवत् ।" जैसे रुपादिगुण होने से परतंत्र है, वैसे इच्छादि भी गुण होने से परतंत्र है।
आशय यह है कि रुपादि परतंत्र है, ऐसा पहले ज्ञान हुआ है। क्योंकि गुण हमेशां परतंत्र होते है। इस ज्ञान द्वारा इच्छादि गुण भी परतंत्र है ऐसा तुल्यज्ञान होता है। यह (तुल्य प्रतीतिका) ज्ञान जिससे होता है वह पूर्ववत् अनुमान कहा जाता है।
"जो गुण है, वह परतंत्र (द्रव्य के आश्रय में ) होते है।" ऐसी पूर्वव्याप्ति के ग्राहक प्रत्यक्ष से (जब) समान विषय उपस्थित होता है (= इच्छादि भी गुण है इसलिए समान विषय उपस्थित होता है।) तब (पहले ग्रहण किये हुए व्याप्ति के ग्राहक प्रत्यक्ष से) वर्तमान में भी (रुपगुण होने से परतंत्र है, उस प्रकार इच्छादि भी गुण होने से परतंत्र है, ऐसी) समान तुल्य प्रतिपत्ति जिससे होती है, वह पूर्ववत् अनुमान कहा जाता है।
(२) शेषवत्अनुमान : शेषवत् अर्थात् परिशेष। प्रसक्तो के प्रतिषेध में अन्यत्र प्रसंग का संभव न होने से बाकी (शेष) रहेनावाला का ज्ञान करे वह परिशेष । यानी कि... प्रसक्त अर्थात् जिसमें प्रकृत पदार्थ के रहनेकी संभावना हो सकती है, वे पदार्थो का निषेध करने से, जब अन्य कोई अनिष्ट अर्थ की संभावना न रहे, तब शेष रहे हुए इष्ट पदार्थ की प्रतिपत्ति कराता है, वह परिशेषानुमान कहा जाता है।
जैसे कि, गुण होने के कारण इच्छादि का पारतंत्र्य सिद्ध होने पर भी शरीरादि प्रसक्तो में (इच्छादिका) प्रतिषेध है। क्योंकि शरीर के विशेषगुण इच्छादि नहीं है। क्योंकि शरीर के गुण रुपादि है। और शरीर के रुपादि गुणो का स्व-पर दोनो आत्मा को प्रत्यक्ष होता है। जब कि इच्छादि का स्व-आत्माको ही प्रत्यक्ष होता है। इस वैधर्म्य से इच्छादि शरीर के गुण नहीं है।
इच्छादिगुण इन्द्रियो के या विषयो के भी नहीं है। क्योंकि इन्द्रियो का हनन होने के बाद (इन्द्रियो का नाश होने के बाद) भी इच्छादि का अनुस्मरण दिखाई देता है और शरीर, इन्द्रिय और विषयके सिवा अन्य की भी प्रसक्ति नहीं है। इसलिए परिशेष से (इच्छादि गुणो के आधार के रुप में) आत्मा की सिद्धि होती है। यहाँ अनुमान प्रयोग इस अनुसार है।
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