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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, संपादकीय अपेक्षा से अनंतधर्मात्मकता की सिद्धि, वस्तु की त्रयात्मकता, प्रमाण सामान्य के लक्षण की विचारणा, प्रमाण के भेद-प्रभेदो का आख्यान, “परहेतुतमोभास्कर" वाद स्थल इत्यादि अनेकानेक विषयो का रोचक शैली में युक्ति पुरस्सर, तर्कबद्ध निरुपण किया गया हैं । २४ • प्रस्तुत ग्रंथ के प्रारंभ में दोनों भाग में संक्षिप्त और विस्तृत विषयानुक्रम दिया गया है । विषयानुक्रम के उपर नजर डालते ही ग्रंथ की प्रमेयबहुलता का अंदाज आ जायेगा । इसलिए ग्रंथ के विषय के बारे में यहाँ ज्यादा लिखते नहीं है और अधिक स्पष्टताएँ भूमिका में की हैं । • इस ग्रंथ में समाविष्ट २२ परिशिष्टों को ग्रंथ व्यवस्था के एक भाग के रुप में दोनों भाग में यथासंभव ११-११ परिशिष्टों का समावेश किया है । संक्षिप्त एवं विस्तृत विषयानुक्रम के निर्देशानुसार सदुपयोग करने का परामर्श है । तदुपरांत, दोनों भाग में समाविष्ट "साक्षीपाठः " संबंधित परिशिष्ट का क्रम बदला है, वह भी विषयानुक्रम में देखकर उपयोग करने का परामर्श है । ग्रंथ आप के हाथ में है और ग्रंथ स्वयं बोलता है, तो इसके विषय में ज्यादा लिखने का कोई मतलब नहीं है । इसलिए यहाँ रुकते है । यहाँ उल्लेखनीय है कि, पूर्व प्रकाशित दो भागो में विभक्त गुर्जरानुवाद ग्रंथ में स्वतंत्र परिशिष्टो के रूप में जैनवाङ्मय में उपलब्ध षड्दर्शन विषयक कृतियों का संग्रह किया गया था, उसको हिन्दी प्रकाशन में समाविष्ट नहीं किया गया । उन सभी कृतियों को और दूसरी अन्य तद्विषयक कृतियों को अलग से संकलित की गई है । षड्दर्शन विषयक १९ कृतियाँ और भिन्न-भिन्न दर्शन के दर्शनकारों ने जो दार्शनिक पदार्थ विषयक सूत्रात्मक ग्रंथ बनाये हैं, उन सूत्रात्मक ग्रंथो का " षड्दर्शन सूत्रसंग्रह एवं षड्दर्शन विषयक कृतयः ।" इस नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ में संकलन किया गया है । यह ग्रंथ भी प्रस्तुत ग्रंथ के साथ ही प्रकाशित होनेवाला हैं । अभ्यासवर्ग को तुलनात्मक अभ्यास हेतु यह ग्रंथ अति उपयोगी बनेगा, इसमें संदेह नहीं है । विशेष में, प्रवचन प्रभावक पू. आ. भ. श्री कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराजा ने इस ग्रंथ के लिए "पूरोवचन" नामक लेख लिख देकर मेरे उपर महान उपकार किया हैं । उससे ग्रंथ की शोभा में अभिवृद्धि हुई हैं । भवोदधितारक पू. गुरुदेवश्री ने भी ग्रंथप्रकाशन के अवसर पे अपना " किंचित्" शुभाभिलाषा लेख लिख देकर मेरे उपर महान उपकार किया हैं । तदुपरांत, यह ग्रंथ के लिए न्यायाचार्य पं. श्री मेहुलभाई शास्त्री ने अपना ग्रंथ संबंधी अभिप्राय "संशोधकप्रतिभावः " नामक लेख में और न्यायाचार्य र्डा. विष्णुप्रसाद शास्त्री ने भी अपना ग्रंथ संबंधी अभिप्राय " सारस्वत - वचनम् " नामक लेख में दिया हैं। उनका सहकार अनुमोदनीय हैं । परामर्श : यह ग्रंथ ज्ञान को निर्मल बनाने के लिए हैं । उसका उपयोग सत्य 'अन्वेषण के लिए हो, वह सभी के लिए हितकारक हैं । कोई भी व्यक्ति इस ग्रंथ के द्वारा आजीविकादि को प्राप्त करे उसमें हमारा अनुमोदन नहीं है । उसका उत्तरदायित्व उनके शिर पे रहेगा । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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