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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन १५५ तत्पूर्ववत्"-पहले अन्वय है जिसका वह तत्पूर्ववत् । अर्थात् केवलान्वयी अनुमान है। अर्थात् जिस अनुमानमें केवल अन्वय व्याप्ति मिलती है, उसे केवलान्वयी अनुमान कहा जाता है। "शेषो व्यतिरेकः, स एवास्ति यस्य तच्छेषवत् ।" अर्थात् शेष यानी व्यतिरेक है जिसका वह तत्शेषवत् । अर्थात् केवलव्यतिरेकी अनुमान है। अर्थात् जिस अनुमान की सिर्फव्यतिरेकव्याप्ति मिलती है, उसे केवलव्यतिरेकी अनुमान कहा जाता है। सामान्य से अन्वय व्यतिरेकरुप साधन के अंगो का जो देखना वह सामान्यतोदृष्ट अर्थात् अन्वय-व्यतिरेकी अनुमान कहा जाता है। अर्थात् जिस अनुमान में अन्वय-व्यतिरेक दोनो व्याप्ति मिलती है वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। (अब त्रिविध का प्रतिपादन दूसरी तरह से करतें है।) अथवा त्रिविध-त्रिरुप, वे तीन रुप कौन से है? पूर्ववत्, शेषवत् और सामन्यतोदृष्ट । पहले ग्रहण किया जाता होने से पूर्व । अनुमान में पहले पक्ष (पक्ष में हेतु का) ग्रहण किया जाता है। इसलिए पूर्व पक्ष है जिसको वह पूर्ववत् अर्थात् पक्षधर्मत्व । इस प्रकार 'पक्षधर्मत्व' प्रथम रुप है। शेष यानी दूसरी जगह पे उपयुक्त होने से साधर्म्य दृष्टांत और साधर्म्यदृष्टांत जहाँ है वह शेषवत् कहा जाता है। उसको 'सपक्षसत्त्व' भी कहा जाता है। इस प्रकार सपक्षसत्त्व द्वितीयरुप है (जैसे कि धूम हेतु सपक्ष ऐसे महानसमें रहता है इसलिए सपक्षसत्त्व 1) सामान्यतोदृष्ट यानी विपक्ष में सर्वत्र असत्त्व अर्थात् विपक्ष में कहीं (मनाक्) भी न दिखे वह सामान्यतोदृष्ट अर्थात् विपक्षासत्त्व । इस प्रकार 'विपक्षासत्त्व' यह तीसरा रुप है। च शब्द से प्रत्यक्ष और आगम से अविरुद्ध तथा असत्प्रतिपक्षत्व, ये दो रुप जानना। इस तरह अन्वयव्यतिरेकी अनुमान में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अविरुद्ध (अबाधितविषयत्व) और असत्प्रतिपक्षत्व, ये पाँच लिंगों-रुपों का आलंबन है। केवलान्वयी अनुमान में विपक्षासत्त्व के सिवा चार लिंगों-रुपों का आलंबन है। व्यतिरेकी अनुमान में सपक्षसत्त्व के सिवा बाकी के चार लिंगों-रुपों का आलंबन है। तत्रानित्यः शब्दः कार्यत्वात्, घटादिवदाकाशादिवञ्चेत्यन्वयव्यतिरेकी हेतुः १ । अदृष्टादीनि कस्यचित्प्रत्यक्षाणि प्रमेयत्वात्करतलादिवदित्यत्र कस्यचित्प्रत्यक्षत्वे साध्येऽप्रत्यक्षस्य कस्यापि वस्तुनो विपक्षस्याभावादेव केवलान्वयी २ । सर्ववित्कर्तृपूर्वकं सर्वं कार्य, कादाचित्कत्वात् । यत्सर्ववित्कर्तृपूर्वकं न भवति, तन्न कादाचित्कं, यथाकाशादि । अत्र सर्वस्य कार्यस्य पक्षीकृतत्वादेव सपक्षाभावात्केवलव्यतिरेकी । प्रसङ्गद्वारेण वा केवलव्यतिरेकी । यथा नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरमप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गाल्लोष्टवदिति प्रसङ्गः । प्रयोगस्त्वित्थम् । इदं जीवच्छरीरं सात्मकं, प्राणादिमत्त्वात् । यन्न सात्मकं तन्न प्राणादिमद्यथा लोष्टमिति प्रसङ्गपूर्वकः केवलव्यतिरेकीति ३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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