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________________ १५४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन __ इसलिए "अव्यभिचरितआदि विशेषणो से विशिष्ट तत्पूर्वकपूर्विका अर्थोपलब्धि जिससे भी उत्पन्न होती है, उसे अनुमान कहा जाता है। फिर वह ज्ञानरुप हो या अज्ञानरुप हो" । यह व्याख्या युक्तियुक्त है। नन्वत्रापि त्रिविधग्रहणमनर्थकमिति चेत्, न । अनुमानविभागार्थत्वात् । पूर्ववदादिग्रहणं च स्वभावादिविषयप्रतिषेधेन पूर्ववदादिविषयज्ञापनार्थम् । पूर्ववदायेव त्रिविधविभागेन विवक्षितं, न स्वभावादिकमिति प्रथमं व्याख्यानम् । अपरे त्वेवं सूत्रं B-83व्याचक्षते । तत्पूर्वकं प्रत्यक्षपूर्वकं त्रिविधमिति, त्रिभेदमनुमानम् । के पुनर्भेदा इत्याह-पूर्ववदित्यादि, पूर्वशब्देनान्वयो व्यपदिश्यते, व्यतिरेकात्प्रागवसीयमानत्वात् पूर्वोऽन्वयः, स एवास्ति यस्य तत्पूर्ववत्केवलान्वय्यनुमानम् १ । शेषो व्यतिरेकः, स एवास्ति यस्य तच्छेषवत्, केवलव्यतिरेकि च २ । सामान्येनान्वयव्यतिरेकयोः साधनाङ्गयोर्यदृष्टं तत्सामान्यतोदृष्टमन्वयव्यतिरेकि चेति ३ अथवा B-84त्रिविधमिति त्रिरूपम् । कानि त्रीणि रूपाणीत्याह पूर्ववदित्यादि, B-85 पूर्वमुपादीयमानत्वात्पूर्वः पक्षः सोऽस्यास्तीति पूर्ववत्पक्षधर्मत्वम् । शेष उपयुक्तादन्यत्वात्साधर्म्यदृष्टान्तः सोऽस्त्यत्रेति शेषवत्सपक्षे सत्त्वम् । सामान्यतोदृष्टमिति विपक्षे सर्वत्रासत्त्वं तृतीयं रूपम् । चशब्दात्प्रत्य-क्षागमाविरुद्धत्वासत्प्रतिपक्षत्वरूपद्वयं च । एवं च पञ्चरूपलिङ्गालम्बनं यत्तत्पूर्वकं तदन्वयव्यतिरेक्यनुमानम् । विपक्षासत्त्वसपक्षसत्त्वयोरन्यतररुपस्यानभिसंबन्धात्तु चतूरुपलिङगालम्बनं केवलान्वयि केवलव्यतिरेकि चानुमानम् । टीकाका भावानुवाद : शंका : सूत्र में "पूर्ववत्" आदि तीन नाम की गणना हो गई है। फिर “त्रिविधं" का ग्रहण निरर्थक है। __ समाधान : "त्रिविधं" का ग्रहण निरर्थक नहीं है। क्योंकि "त्रिविधं" पद अनुमान का प्रकार सूचित करने के लिए है। पूर्ववत् आदि तीन प्रकार का ग्रहण स्वभावादिविषय के प्रतिषेध द्वारा पूर्ववत्' आदि विषय को बताने के लिए है। (यानी कि) पूर्ववत् आदि तीन विभाग (प्रकार) द्वारा अनुमान की विवक्षा की है। परन्तु स्वभाव, हेतु, कार्यरुप द्वारो से नहीं । इस तरह से सूत्र की यह प्रथम व्याख्या हुई। परन्तु दूसरे लोग सूत्र की व्याख्या इस अनुसार कहते है - ___ तत्पूर्वक अर्थात् प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान के तीन भेद है। अनुमान के वे भेद कौन से है ? (१) पूर्ववत्, (२) शेषवत्, (३) सामान्यतोदृष्ट। यहाँ पूर्व शब्द के द्वारा अन्वय का व्यपदेश किया जाता है। क्योंकि वह व्यतिरेक से पहले मालूम पडता है । अर्थात् व्यतिरेक से पहले ज्ञात होनेवाला अन्वय है। इसलिये “पूर्वोऽन्वयः, स एवास्ति यस्य १ विपक्षे मनागपि यन्न दष्टं, इति प्रत्यन्तरेऽधिकं दरीदृश्यते । (B-83-84-85) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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