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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन
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होगा? (अर्थात् प्रत्यक्ष से अतिरिक्त प्रमाणो का प्रकरण पहले आया नहीं है, तो बहुवचनान्त "तत्"शब्द के विग्रह में उस प्रमाणो का ग्रहण किस तरह से कर सकेंगे ?) __ समाधान : ऐसा मत कहना, क्योंकि साक्षात् अप्रकृत होने पर भी प्रत्यक्ष के लक्षणसूत्र में अन्य प्रमाणो की व्यावृत्ति हो गई है। इसलिए व्यवच्छेद रुप से उनका प्रकरण था ही। इसलिये तत् शब्द से इस प्रमाणो का परामर्श करने में बाध नहीं है।
अस्यां व्याख्यायां नाव्याप्त्यादिदोषः कश्चनापि । ये तु पूर्वशब्दस्यैकस्य लुप्तस्य निर्देशं नाभ्युपगच्छन्ति, तेषां प्रत्यक्षफलेऽनुमानत्वप्रसक्तिः, तत्फलस्य प्रत्यक्षप्रमाणपूर्वकत्वात् । अथाकारकस्याप्रमाणत्वात्साधकतमस्य कारकत्वं लभ्यते । ततोऽयमर्थः । अव्यभिचरिताव्यपदेश्यव्यवसायात्मिकार्थोपलब्धिजनकमेवाध्यक्षफलं लिङ्गज्ञानमनुमानमिति चेत्, उच्यते । एवमपि विशिष्टज्ञानमेवानुमान प्रसज्यते । न च ज्ञानस्यैवानुमानत्वम्, “स्मृत्यनुमानागमसंशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहाः सुखादिप्रत्यक्षमिच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि [न्याय भा० १/१/१६] इति वचनात् सर्वस्य बोधाबोधरूपस्य विशिष्टफलजनकस्यानुमानत्वादित्यव्याप्तिलक्षणदोषः । अतोऽर्थोपलब्धिरव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टा तत्पूर्वकपूर्विका, यतस्तदनुमानमित्येव व्याख्यानं युक्तिमत्"-82 ।
टीकाका भावानुवाद :
इस व्याख्या में अव्याप्ति आदि कोई भी दोष नहीं है। उपरांत जो लोक एक "पूर्व" शब्द के लोप के निर्देश का स्वीकार नहीं करते है, उनको प्रत्यक्ष के फल में अनुमानत्व की आपत्ति आयेंगी । क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण का फल प्रत्यक्षप्रमाणपूर्वक होता है । इसलिए तत्पूर्वक होने से, वह भी अनुमानरुप बन जायेगा।
शंका : प्रमाके प्रति साधकमत कारक को ही प्रमाण कहा जाता है । इसलिए अकारक प्रमाण नहीं बन सकता। प्रत्यक्ष के फल में अकारकत्व होने से अनुमानत्व का प्रसंग नहीं है। कहने का मतलब यह है कि, प्रत्यक्षप्रमाण का फलभूत लिंगज्ञान अव्यभिचरित, अव्यपदेश्य तथा व्यवसायात्मिक अर्थोपलब्धि को उत्पन्न करता है, वही अनुमानरुप बन सकता है, अन्य नहीं ।
समाधान : आपकी इस व्याख्या से तो विशिष्टज्ञान ही अनुमान हो सकता है, ज्ञानमात्र नहि । शास्त्र में तो अज्ञानात्मक पदार्थ भी लिंगिज्ञान में साधकतम होने से अनुमानरुप कहा है। न्यायसूत्र में कहा है कि, "स्मृति, अनुमान, आगम, संशय, प्रतिभा, स्वप्नज्ञान, उहा, सुखादि प्रत्यक्ष तथा इच्छादि मन के लिंग है।" इसमें स्मृति ज्ञानो की तरह इच्छादि अज्ञानात्मक पदार्थो का भी लिंगअनुमान माना ही है। सूत्रकारका तात्पर्य वह है कि - लिंगिज्ञानरुप विशिष्टफल को उत्पन्न करनेवाला पदार्थ ज्ञानरुप हो या अज्ञानरुप हो तो भी अनुमान कहना चाहिए । इसलिए पूर्वोक्त व्याख्या में अव्याप्तिदोष आता ही है। (B-82) - तु० पा० प्र० प० ।
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