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________________ १५२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन "तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं, पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च"-यह सूत्र की व्याख्या एक वादि करते है कि, यहाँ एक 'पूर्वक' शब्द का (सामान्यश्रुति से) लोप हुआ जानना। कहने का आशय यह है कि सूत्रमें "तत्पूर्वकं" पद है, वहाँ दो पूर्वकशब्द थे, उसमें से समानश्रुति के कारण एक का लोप हुआ है। वहाँ तत् शब्द से प्रत्यक्ष प्रमाण का संबंध करेंगे। इसलिए तत्पूर्वक = प्रत्यक्ष का फल लिंगज्ञान और लिंगज्ञान जिसके पहले है, उस तत्पूर्वकपूर्वक = लिंगिज्ञान होता है। अर्थात् अनुमिति कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि प्रत्यक्ष से धूमादि का ज्ञान उत्पन्न होता, अर्थात् लिंगज्ञान होता है और धूमादि के ज्ञान से वह्नि आदि का ज्ञान होता है। अर्थात् लिंगि का ज्ञान होता है।) ___ इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्व विशेषण को छोड़कर ज्ञानादिविशेषणों प्रत्यक्ष के सूत्र से यहाँ अनुमान के सूत्र में भी जोडना और ये तीनो विशेषणो को अलग करके (विशेष करके) पहले कहे अनुसार (प्रत्यक्ष के लक्षण की व्याख्या में कहे अनुसार) स्वयं सोचना । अर्थात् तीनो विशेषणो की भिन्न-भिन विशेषता और उसकी सूत्र में आवश्यकता स्वयं सोचना । अर्थात् (९)द्वितीय लिंगदर्शन पूर्वक होनेवाली अविनाभाव से संबद्ध स्मृति (स्मरण) तत्पूर्वकपूर्वक होने से, स्मृति के जनक में अनुमानत्व नहि आयेगा, अर्थात् द्वितीय लिंगदर्शन अर्थात् लिंग के दूसरी बार के प्रत्यक्ष से अविनाभाव के संबंध से स्मृति भी होती है। वह स्मृति भी तत्पूर्वकपूर्वक कही जाती है। इसलिए स्मृति को उत्पन्न करनेवाले द्वितीयलिंगदर्शन में भी अनुमान प्रमाणता आने की आपत्ति है। उसकी निवृत्ति के लिए अर्थोपलब्धि (पदको) ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि, स्मृति का तो अर्थ के बिना भी सद्भाव होता है । इसलिए वह अर्थोपलब्धि नहीं है। इसलिए सूत्र का यह अर्थ होगाअर्थोपलब्धिरुप अव्यभिचारि, अव्यपदेश्य और व्यवसायात्मिक तत्पूर्वकपूर्वक ज्ञानरुप अर्थात् जो लिंगादि से लिंगिज्ञानरुप अर्थोपलब्धि उत्पन्न होती है उसे अनुमान कहा जाता है। इस तरह से एक वादि का मत है। (दूसरा वादि की मान्यता है कि) लिंग-लिंगि के संबंधका दर्शन तथा लिंगदर्शनरुप दो प्रत्यक्ष जिस के पूर्व में है, वह तत्तत्पूर्वकः'-इस विग्रहविशेष के आश्रय से अनुमान प्रत्यक्ष के दो फल पूर्वक है ऐसा बताया हुआ जानना । लिंग-लिंगि के संबंधका दर्शन तथा लिंगदर्शनपूर्वक अनुमान होता है। तथा वे प्रत्यक्षादि प्रमाण है पहले जिसको, वह तत्तत्पूर्वक, इस विग्रहविशेष के आश्रय से अनुमान का सर्वप्रमाणपूर्वकत्व प्राप्त होता है। प्रश्न : वे प्रत्यक्षादि प्रमाण (अनुमान के) पहले अप्रकृत है, तो किस तरहसे तत् शब्द से उसका परामर्श (९) अनुमान के अंदर तीन लिंगपरामर्श होते है (१) धूमादिको (पर्वतमें) देखना-"पर्वतो धूमवान् ।" (२) व्याप्ति का स्मरण-"धूमो वह्निव्याप्य ।" (३) वह्निव्याप्यधूमवान् । - मतलब यह है कि, जब व्यक्ति पर्वत के उपर धूमादि को देखता है, तब उसको "पर्वतो धूमवान्" ऐसा लिंगपरामर्श होता है। इसके बाद महानस (रसोईघर) में धूम और अग्नि के साहचर्य से प्राप्त किये हुए “यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वह्निः" व्याप्ति का स्मरण होता है, इसलिए उसको "धूमो वह्निव्याप्य" ऐसा दूसरा लिंगपरामर्श होता है और उसके बाद धूमादि हेतु में व्याप्ति और यह हेतु पर्वतादि पक्ष में है ऐसा ज्ञान होता है। इसलिए "वह्निव्याप्यधूमवान् अयं" ऐसा तीसरा लिंगपरामर्श होता है। (B-81) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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