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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन
B-80योगिप्रत्यक्षं तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्राहकम् । तद्विविधं, युक्तानां प्रत्यक्षं वियुक्तानां च । तत्र समाध्यैकाग्र्यवतां योगधर्मेश्वरादिसहकृतादात्मान्तःकरणसंयोगादेव बाह्यार्थसंयोगनिरपेक्षं यदशेषार्थग्रहणं, तद्युक्तानां प्रत्यक्षम् । एतञ्च निर्विकल्पकमेव भवति, विकल्पतः समाध्यैकाग्र्यानुपपत्तेः । इदं चोत्कृष्टयोगिन एव विज्ञेयं, योगिमात्रस्य तदसंभवात् । असमाध्यवस्थायां योगिनामात्ममनोबाह्येन्द्रियरूपाद्याश्रयचतुष्कसंयोगाद्रूपादीनां, आत्ममनःश्रौत्रत्रयसंयोगाच्छब्दस्य, आत्ममनोद्वयसंयोगात्सुखादीनां च यद्ग्रहणं, तद्वियुक्तानां प्रत्यक्षम् । तञ्च निर्विकल्पकं सविकल्पकं च प्रतिपत्तव्यम् । विस्तरार्थिना तु न्यायसारटीका विलोकनीयेति ।। टीकाका भावानुवाद :
अब प्रत्यक्ष शब्द का प्रत्यक्षप्रमाण और उसका प्रत्यक्षफल में अभेद की विवक्षा करके प्रत्यक्ष के भेद कहते है। प्रत्यक्ष दो प्रकार से है। (१) अयोगिप्रत्यक्ष, (२) योगिप्रत्यक्ष ।
हमारा इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अयोगिप्रत्यक्ष ज्ञान है। अयोगिप्रत्यक्ष दो प्रकार का है । (१) निर्विकल्पक, (२) सविकल्पक।
वस्तु के स्वरुपमात्र का अवभासकज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कहा जाता है। जैसे कि, प्रथम इन्द्रिय के सन्निपात-सम्पर्क से उत्पन्न हुआ ज्ञान ।
संज्ञा-संज्ञि संबंध के उल्लेख के द्वारा ज्ञानोत्पत्ति में निमित्तरुप सविकल्पकज्ञान-प्रत्यक्ष है। जैसे कि, "देवदत्तोऽयं दण्डी" इत्यादि-यहाँ वाचक-संज्ञा (दण्ड) और वाच्य-संज्ञि (देवदत्त), ये दोनो के संबंध द्वारा "देवदत्तोऽयं दण्डी" ऐसा जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह सविकल्पक (प्रत्यक्ष) कहा जाता है।
(यह अयोगिप्रत्यक्ष अविप्रकृष्ट (नजदीक रहे हुओ) पदार्थ का ज्ञान कराता है।) योगि प्रत्यक्ष देश, काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट (अतिशय दूर रहे हुओ) अर्थ का ग्राहक है। अर्थात् दूरदेशवर्ती, अतीतानागतकालवर्ती तथा सूक्ष्मस्वभाववाला यावत् अतीन्द्रिय पदार्थो का ग्राहक है।
योगिप्रत्यक्ष दो प्रकार का है। (१) युक्तयोगियों का प्रत्यक्ष और (२) वियुक्तयोगियों का प्रत्यक्ष । (१) युक्तयोगियों का प्रत्यक्ष : समाधि में जिनका चित्त परम एकाग्रतावाला हुआ है, वे योगियो को योग-धर्म और ईश्वरआदि के सहकार से, आत्मा तथा अंतःकरण के संयोग से ही, बाह्यार्थसंयोग से निरपेक्ष, जो सभी पदार्थो का ज्ञान होता है, उसे युक्तयोगियों का प्रत्यक्ष कहा जाता है। और यह प्रत्यक्ष निर्विकल्पक ही होता है। क्योंकि, विकल्प से समाधि में एकाग्रता संगत नहीं होती है। और यह प्रत्यक्ष उत्कृष्ट योगियों को ही जानना अर्थात् उत्कृष्ट योगियों को ही होता है। क्योंकि, योगिमात्र को (सभी योगियो को) इस प्रत्यक्ष का संभव नहीं है।
(B-80)- तु० पा० प्र० प० ।
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