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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन - से अर्थ अनुकूल हो तो सुख और अर्थ प्रतिकूल हो तो दुःख होता है। इस प्रकार सुख-दु:ख संबंधित स्मृति इन्द्रियार्थसन्निकर्ष के सहकार से होती है । इसलिए सुख - दुःख संबंधित स्मृति में इन्द्रियार्थसन्निकर्ष सहकारि है।) और वह सहकारी होने से 'तथा चायम्' अर्थात् 'उस अनुसार वह है' ऐसा सारुप्यज्ञान उत्पन्न होता है । वह सारुप्यज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्ष के सहकार से स्मृति द्वारा होता है । इसलिए स्मृति की (भी) प्रत्यक्षप्रमाणता है। इस प्रकार स्मृति प्रत्यक्षप्रमाण है । १४९ (इसलिए अनुभव के वंश (संस्कार) से उत्पन्न हुई स्मृति प्रत्यक्ष का फल है तथा उपरोक्त कथनानुसार स्मृति प्रत्यक्षप्रमाण भी है।) (उपर पूर्व जैसे " तथा चायम्" यह सारुप्यज्ञान फल है, ऐसा बताया, सारुप्यज्ञान प्रमाण भी है, वह बताते है ) वैसे सारुप्यज्ञान ‘यह सुख का साधन है' - इस अनुसार आनुमानिक फल को उत्पन्न करनेवाला (जनक) होने से अनुमान प्रमाण है I शंका : “यह सुख का साधन है" इस अनुसार सुखसाधनत्व का शक्तिज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न होता है। इसलि सारुप्यज्ञान अनुमान प्रमाण नहीं है, परन्तु प्रत्यक्षप्रमाण ही है । - समाधान: सुखसाधनत्व का शक्तिज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि, अर्थ इन्द्रिय से सन्निहित ( नजदीक) हो, तो ही वह अर्थ का ज्ञान उत्पन्न कर सकेंगा। शक्ति इन्द्रिय से सन्निहित न होने से शक्तिज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता है । इसलिए सुखसाधनत्वरूप आनुमानिक ज्ञान सारुप्यज्ञान से उत्पन्न होने से, सारुप्यज्ञान अनुमान प्रमाण है । आत्मा का मन - इन्द्रिय के साथ के सन्निकर्ष में सुखादिज्ञान फल है और मन - इन्द्रिय की तथा उसके सन्निकर्ष की प्रत्यक्षप्रमाणता है । इस तरह से अन्यत्र भी यथायोग्य प्रमाण- फल का विभाग जानना । Jain Education International यह 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षादि' (१-१-४) इस न्यायसूत्र को ग्रंथकार श्री श्लोक में (पद्यमें ) पीरो के इस सूत्र के अर्थ को अनुकूल रुप से श्लोक में प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण करते हुए कहते है । "इन्द्रियार्थसंपर्कोत्पन्नम्" (अर्थ पहले बताया है) यहाँ सम्पर्क = संबंध । श्लोक में जो 'व्यभिचारि च' ऐसा कहा है वहा “च” कार विशेषणो के समुच्चय के लिए है। उपरांत "अव्यभिचारिकम्” इस अनुसार (जहाँ) पाठ है, वहाँ 'अव्यभिचारि एव' इस व्युत्पत्ति से स्वार्थ में "क" प्रत्यय लगा हुआ है। व्यपदेश अर्थात् शब्दकल्पना. यहाँ भी श्लोक की व्याख्या में 'यतः' अध्याहार से लेना । श्लोक का भावार्थ सर्व पूर्ववत् जानना । अथ प्रत्यक्षतत्फलयोरभेदविवक्षया प्रत्यक्षस्य भेदा उच्यन्ते । प्रत्यक्षं द्वेधा, अयोगिप्रत्यक्षं योगिप्रत्यक्षं च यदस्मदादीनामिन्द्रियार्थसन्निकर्षाज्ज्ञानमुत्पद्यते, तदयोगि- प्रत्यक्षम् । तदपि द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पं च तत्र वस्तुस्वरूपमात्रावभासकं निर्विकल्पकं, यथा प्रथमा सन्निपात ज्ञानम् । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धोल्लेखेन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्पकं, यथा देवदत्तोऽयं दण्डीत्यादि । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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