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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन धर्मीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वादिभिर्विशेष्यते । अन्यथा धर्म्यभावे क्वाव्यभिचारादीन् धर्मांस्तत्पदानि प्रतिपादयेयुः । केचित्पुनरेवं व्याचक्षते । अव्यपदेश्यं व्यवसायात्मकमिति पदद्वयेन निर्विकल्पकसविकल्पकभेदेन प्रत्यक्षस्य द्वैविध्यमाह, शेषाणि तु ज्ञानविशेषणानीति । १४४ टीकाका भावानुवाद : शंका: सन्निकर्ष शब्द में "सं" का ग्रहण न करो और "निकर्ष" रखो तो भी चलेगा। क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ नजदीक आने से प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायेगा। (निकर्ष का अर्थ नजदीक है ।) इसलिए सन्निकर्ष शब्द के स्थान पे निकर्ष शब्द ही रखो, 'सं' शब्द का ग्रहण निरर्थक है । नैयायिक : ऐसा मत कहना, क्योंकि "सं" शब्द का ग्रहण छः सन्निकर्ष के प्रतिपादन के लिए है और (उपरोक्त बताये गये) ये सन्निकर्ष ही ज्ञान - उत्पादान में समर्थकारण है । परन्तु संयुक्त-संयोगादि ज्ञानोत्पत्ति में कारण नहीं है । इस अनुसार " सं" ग्रहण से ज्ञानोत्पत्ति में कारणभूत छः सन्निकर्षो का लाभ होता है। इसलिए “सं" ग्रहण व्यर्थ नहीं है। सार्थक ही है। तथा "इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्नज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है ।" यहाँ उत्पत्ति का ग्रहण सन्निकर्ष में कारकत्व का सूचन करने के लिए है । अर्थात् इन्द्रियार्थसन्निकर्ष 'कारक' है। ऐसा बताने के लिए है । कहने का मतलब यह है कि, इन्द्रिय का नजदीकी से अर्थ (पदार्थ) के साथ संबंध होता है । और इन्द्रियार्थ के संबंध से ज्ञान उत्पन्न होता है । जिससे कहा है कि "स्व-स्व अर्थो (विषयो) के साथ इन्द्रिय, इन्द्रिय के साथ मन और मन के साथ आत्मा (संबंध करता है।) यह शीघ्र क्रम है। जहाँ मन जाता है वहाँ यह आत्मा गया हुआ ही है। (इसलिए) मन का यह योग क्या अगम्य है ? ॥१॥" ( कहने का मतलब यह है कि इन्द्रिय का स्व अर्थ (विषय) के साथ संबंध होता है तथा इन्द्रिय के साथ मन का तथा मन के साथ आत्मा का संबंध होता है। और इस संबंध से ज्ञान उत्पन्न होता है। जैसे कि यह घट है' इत्यादि ।) यहाँ इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है । यहाँ ज्ञान का ग्रहण सुखादि की निवृत्ति के लिए है। क्योंकि सुखादि अज्ञानरुप है । (उपरांत ज्ञान और सुखादि में जो भेद है वह प्रत्यक्षसिद्ध है ।) सुखादि आह्लादादि स्वभाववाले है । और वे ग्राह्यतया अनुभव किये जाते है। (अर्थात् अर्थ की - विषय की प्राप्ति होने से अनुकूलता - प्रतिकूलता के योग से जो सुख - दुःख होते है, वह ग्राह्यतया महसूस किये जा सकते है।) परन्तु ज्ञान अर्थ के अवगम का स्वभावरुप है और ग्राहकतया महसूस किया जाता है। (अर्थात् ज्ञान अर्थ-विषयो को बताने का स्वभाववाला है और वह ज्ञान वस्तु में रहे हुए सुख-दुःख आदि को ग्रहण करनेवाला ग्राहक है । इस प्रकार ज्ञान ग्राहकतया अनुभव किया जाता है ।) इसलिये इस तरह से ज्ञान तथा सुखादि में ग्राह्यग्राहकतया स्पष्ट भेद प्रत्यक्ष से सिद्ध ही है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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