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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन १४५ प्रत्यक्ष के लक्षण में जो 'अव्यपदेश्य' पद है, उसकी विवक्षा करते है। नाम-कल्पना से रहित को अव्यपदेश्य कहा जाता है। नाम तथा कल्पना के होने पर वह शाब्द प्रमाण हो जाता है । (प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होगा।) इसलिये "अव्यपदेश्य" विशेषण को ग्रहण किया है। (अव्यपदेश्य पद का ग्रहण किया न जाये तो 'व्यपदेश= शब्द, उस शब्द के द्वारा और इन्द्रियार्थसन्निकर्ष के द्वारा, ऐसे दोनो के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी अध्यक्ष प्रत्यक्ष का फल होगा । (अर्थात् व्यपदेश = शब्द द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी प्रत्यक्षका फल होगा और इन्द्रियार्थसन्निकर्ष द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष का फल होगा। परन्तु शब्द द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान शाब्द प्रमाणका फल है। परन्तु प्रत्यक्ष का फल नहीं है।) इसलिए उसकी निवृत्ति के लिए (अर्थात् शब्द से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान में प्रत्यक्षफलत्व की आपत्ति के निवारण के लिए) प्रत्यक्ष के लक्षण में अव्यपदेश्य पद का उपादान किया गया है। "इदमत्र तत्त्वम्"-कहने का तात्पर्य यह है कि, चक्षु, गाय और "गो" शब्द के व्यापार में होने पर भी "अयं गौः" इस अनुसार विशिष्ट काल में जो (गाय संबंधी) ज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा मालूम पडता है । वह ज्ञान शब्द और इन्द्रिय (चक्षु) दोनो से उत्पन्न होने पर भी (इस ज्ञान में) शब्द का बहोत विषय होने के कारण (शब्दका) प्राधान्य है। इसलिए वह ज्ञान शाब्दज्ञान के रुप में इच्छित है। परन्तु प्रत्यक्ष के रुप में नहीं। प्रत्यक्षज्ञान के लक्षण में 'अव्यभिचारि' पद रखने का प्रयोजन जनाते है - इन्द्रिय जन्य मरुमरीचिका में (मृगजल के जल में) होता हुआ पानी के ज्ञान की और शुक्ति के टुकडे में (८ कलधौत (रजत-चाँदी) के बोधादि की निवृत्ति के लिए अव्यभिचारिपद का उपादान किया गया है। (संशय और विपर्यय से रहित (७) नाम और कल्पनारहित को अव्यपदेश्य कहा जाता है । नैयायिकोने प्रत्यक्ष के जो दो प्रकार माने है, उसमें निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का सचन "अव्यपदेश्य" पद से होता है और "व्यवसायात्मक" पद से सविकल्पकप्रत्यक्ष का सूचन जानना । उपरांत इस विषय में विशेष विचार करे तो, जिसमें विशेषण हो वह व्यपदेश्य । और जिसमें विशेषण न हो, वह अव्यपदेश्य । अर्थात् विशेषण के बिना उत्पन्न हुआ जो शुद्धज्ञान है वह प्रत्यक्ष है। जब उसमें विशेषण जुड जाये तब वह व्यपदेश्य बनता है। जैसे कि घटज्ञान में घटत्व विशेषण और वृक्षज्ञान में वृक्षत्व विशेषण है। अर्थात् व्यवहार में आनेवाला सर्व ज्ञान विशेषणवाला होता है। और उत्पत्ति के समय तो ज्ञान विशेषण रहित ही होता है। अव्यपदेश्य का दूसरा अर्थ भी होता है। वह इस अनुसार है – जिसमें शब्द भी संबंधी के रुप में हो वह व्यपदेश्य । अव्यपदेश्य अर्थात् जिसमें शब्द संबंधी के रुप में या विशेषण के रुप में न हो वह । जैसे कि, चक्षु आदि इन्द्रियो का जब अर्थ के साथ संबंध होता है। तब द्रष्टा के आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें शब्द लेशमात्र भी संबंधी रुप में होता नहीं है। छोटा छह मास का बालक जब हाथी आदि प्राणीयों को देखता है, तब उसके आत्मा में ज्ञान तो अवश्य उत्पन्न होता है। परन्तु उस वक्त हाथी ऐसा शब्द ज्ञान का संबंधी और विशेषण के रुप में बिलकुल नहीं होता। इसलिए प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्ति में शब्द संबंधी के रुप में, वाचक के रुप में, विशेषण के रुप में ज्ञान के साथ नहीं होता। इस बात को बताने के लिए अव्यपदेश्य ऐसा विशेषण ज्ञान को दिया है। (८) कलधौत के स्थान पे "रजत" पाठ हो तो ज्यादा योग्य लगता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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