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________________ १४२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रासन, स्पर्शन और मन, ये छ: इन्द्रियाँ है। वे इन्द्रियो का अर्थ, वह इन्द्रियार्थ अर्थात् इन्द्रियो के विषय । “रुपादयस्तदर्थाः" इस वचन से रुपादि इन्द्रियो के अर्थ (विषय) है। उस रुपादि के साथ इन्द्रियो का सन्निकर्ष-संबंध होना, वह इन्द्रियार्थसन्निकर्ष कहा जाता है। वह सन्निकर्ष छः प्रकार का होता है। (१) संयोग : इन्द्रिय के साथ द्रव्य का संयोग। (२) संयुक्तसमवाय : रुपादिगुण संयुक्त समवाय संबंध से ही द्रव्य में समवेत है। अर्थात् संयुक्तसमवायसन्निकर्ष से रुपादि गुणो का प्रत्यक्ष होता है। (३) संयुक्तसमवेत समवाय : रुपादि गुणो में समवाय संबंध से रहे हुए रुपत्वादि, द्रव्य में संयुक्त समवेतसमवाय संबंध से रहते है। अर्थात् संयुक्तसमवेतसमवायसन्निकर्ष से गुणत्वादि-रुपत्वादि जाति का प्रत्यक्ष होता है। (४) समवाय : शब्द का प्रत्यक्ष श्रवणेन्द्रिय द्वारा होता है और श्रवणेन्द्रिय आकाश स्वरुप है। शब्द आकाश का गुण है तथा शब्द आकाश में समवाय संबंध से रहता है। इसलिए शब्द के साथ श्रवणेन्द्रिय का समवाय संबंध है। इस समवायसन्निकर्ष से शब्द का प्रत्यक्ष होता है। (५) समवेत समवायः आकाश में शब्द समवाय संबंध से रहते है। और शब्द में शब्दत्व समवायसंबंध से रहते है। आकाश श्रोत्रेन्द्रिय स्वरुप है। इसलिए जैसे शब्द का प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रिय से होता है। वैसे शब्दत्वजाति का प्रत्यक्ष भी श्रोत्रेन्द्रिय से होता है । उसमें कारण समवेतसमवायसन्निकर्ष बनता है । अर्थात् समवेतसमवायसन्निकर्ष से शब्दत्व का प्रत्यक्ष होता है । (६) विशेषण विशेष्यभाव : समवाय और अभाव के प्रत्यक्ष में विशेषणविशेष्यभाव सन्निकर्ष कारण बनता है। द्रव्यसमवेतगुणादिसमवेतनीलत्वादिजातिवृत्ति पीतत्वाद्यभाव के प्रत्यक्ष में "इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवेत विशेषणता" सन्निकर्ष कारण बनता है । पीतत्वाभाववन्नीलत्वम्, शीतत्वाभाववदुष्णत्वम् सुरभित्वाभाववदुरभित्वम्, आम्लत्वाभाववन्मधुरत्वम् और सुखत्वाभाववद् दुखत्वम् इत्याकारक प्रतीति के विषयभूत पीतत्वाद्यभाव इन्द्रियसंयुक्त(घटादि)समवेत (नीलादि)समवेत नीलत्वादि में वृत्ति है और एतादृश पीतत्वाद्यभाव प्रत्यक्ष अनुक्रम से चक्षु, त्वक्, घ्राण, रसन और मन इन्द्रिय से जन्य है । उसमें इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवेत विशेषणता सन्निकर्ष कारण बनता है। __ आकाशात्मकद्रव्यसमवेत "क" "ख" इत्यादिक शब्दवृत्ति गत्वाद्यभावका प्रत्यक्ष श्रवणेन्द्रिय से होता है। उसमें श्रवणेन्द्रियसमवेतशब्दनिरुपित विशेषणता सन्निकर्ष कारण बनता है । शब्दाधिकरणकाभाववृत्तिलौकिक विषयतासंबंध से गत्वाद्यभावप्रत्यक्ष तादृशशब्दादिकाभाव में है । वहाँ श्रवणेन्द्रियसमवेतनिरुपित विशेषणता सन्निकर्ष कारण भी है। शब्दसमवेतशब्दत्वादिवृत्ति कत्वाद्यभाव का प्रत्यक्ष, श्रवणेन्द्रिय से जन्य है। उसके प्रति श्रवणेन्द्रिय समवेत शब्दसमवेतनिरुपितविशेषणतासन्निकर्ष कारण बनता है । शब्दसमवेताधिकरणकाभाव का प्रत्यक्ष, शब्द समवेताधिकरणकाभाववृत्ति लौकिकविषयत्व संबंध से शब्दसमेवताधिकरणकाभाव में है। और वहाँ श्रवणेन्द्रिय समवेतसमवेत (शब्दत्वादि) निरुपितविशेषणता सन्निकर्ष है। __यह विशेषणात्मकसन्निकर्ष "घटाभाववद् भूतलम्" इत्यादि स्थान पे अर्थात् जहाँ अभाव का विशेषणविधया भान है, वहाँ ही उपयोगी है। परन्तु "भूतले घटो नास्ति" अथवा "भूतले घटाभाव" इत्यादि स्थान पे अभाव का विशेष्यतया भान होने से उपर्युक्त विशेषणता के स्थान पे विशेष्यतासन्निकर्ष का पाठ समज के अभावप्रत्यक्ष के प्रति विशेष्यतासन्निकर्ष की कारणता स्वयं समजनी चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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