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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग- १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन १४१ अक्षपाद-गौतम प्रणीत (न्यायसूत्रमें) प्रत्यक्ष का लक्षण सूचित करता यह सूत्र है - "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षं ॥१-१-४-न्यायसूत्र ॥ इन्द्रिय और रुपादि अर्थो के सन्निकर्ष से उत्पन्न हुआ, अव्यपदेश्य (शब्द प्रयोग रहित), अव्यभिचारि (संशय और विपर्यय रहित) तथा व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है। परमाणु में रुपाभाव का प्रत्यक्ष चक्षु इन्द्रिय से नहीं होता। क्योंकि, रुपाभाव का अधिकरण परमाणु योग्य नहीं है। परमाणु में प्रत्यक्ष के प्रति कारणभूत महत् परिमाण नहीं है। इसलिए अधिकरण की अयोग्यता को लेकर रुपाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता है। जलादि में गंधाभाव का प्रत्यक्ष चक्षु इन्द्रिय से नहीं होता है। क्योंकि गंधाभाव के प्रत्यक्ष के प्रति चक्षु इन्द्रिय अयोग्य है । तेज में गुरुत्वाभाव होने पर भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। क्योंकि गुरुत्वाभाव का प्रतियोगी गुरुत्व अतीन्द्रिय है । इसलिए कहने का मतलब यह है कि 'यद्यत्र स्यात् तर्हि उपलभ्येत्' इस आरोप का विषय जो अभाव बनता है उसका प्रत्यक्ष होता है। सामान्यतः इस आरोप की संभावना न हो, वहाँ अभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता। अभाव का प्रत्यक्ष, अभाववृत्ति लौकिकविषयता संबंध से अभाव में रहता है। और वहाँ अभाव प्रत्यक्ष के कारणभूत इन्द्रियसंयुक्तविशेषणता इत्यादिक सन्निकर्ष स्वरुपसंबंध से रहते है। द्रव्याधिकरण अभाव के प्रत्यक्ष में इन्द्रियसंयुतविशेषणतासन्निकर्ष कारण बनता है। चक्षु और त्वइन्द्रिय से भूतल में घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है। आम्रादि में घ्राणेन्द्रिय से सुरभिगंधाभाव का प्रत्यक्ष होता है। द्रव्य में रसनेन्द्रिय से अम्लादिरसाभाव का प्रत्यक्ष होता है । और मन से आत्मा में दुःखाभाव का प्रत्यक्ष होता है । इसलिए "घटाभाववद् भूतलम्, सुरभिगंधाभाववदाम्रफलम्, आम्लरसाभाववज्जलम् और दुःखाभाववान् आत्मा, इत्याकारक प्रतीति के विषयभूत द्रव्याधिकरण अभावप्रत्यक्ष में अनुक्रम से चक्षुःसंयुक्त(भूतल)विशेषणता तथा त्वक्संयुक्त(भूतल) विशेषणता, घ्राणसंयुक्त(आम्र)विशेषणता, रसनसंयुक्त(जल)विशेषणता और मन:संयुक्त(आत्मा)विशेषणता सन्निकर्षता कारण बनती है। अभाव के अधिकरण भूतलादि द्रव्य इन्द्रियसंयुक्त है, उसमें अभाव विशेषण है। अर्थात् तादृश विशेषणता सन्निकर्ष अभाव में है । जहाँ अभाव का प्रत्यक्ष भी उक्त विषयता संबंध से विद्यमान है । और इन्द्रियसंयुक्त विशेषणतासन्निकर्ष के इन्द्रिय के भेद से पाँच भेद है। श्रवणेन्द्रिय से श्रोत्रावच्छिन्नविवररुप आकाश में शब्दाभाव का प्रत्यक्ष होता है। परन्तु उसमें श्रवणेन्द्रिय संयुक्त विशेषणतासन्निकर्ष कारण नहीं है। क्योंकि श्रवणेन्द्रिय आकाशस्वरुप होने से तत्संयुक्त अन्य आकाश नहीं है। जिससे केवल श्रवणेन्द्रियविशेषणतासन्निकर्ष से शब्दाभाव का प्रत्यक्ष आकाश में होता है। अन्य अधिकरण में शब्दाभाव के प्रत्यक्ष का प्रसंग ही नहीं है । क्योंकि अन्य अधिकरण में शब्द का प्रत्यक्ष नहीं होता । इसलिए प्रतियोगि की अयोग्यता के कारण श्रवणेन्द्रिय से शब्दाभाव का प्रत्यक्ष आकाश से अतिरिक्त स्थान पे नहीं मानते। द्रव्यसमवेतगुणादिवृत्ति अभाव के प्रत्यक्ष में इन्द्रियसंयुक्तसमवेतविशेषणता सन्निकर्ष कारण बनता है । पीतत्वाभाववान् नीलम्, शीतत्वाभाववदुष्णस्पर्शः, सुरभित्वाभाववान् दुरभिगन्धः, आम्लत्वाभाववान् मधुररस और दुःखत्वाभाववत्सुखम् इत्याकारक प्रतीति के विषयभूत पीतत्वादि अभाव का प्रत्यक्ष अनुक्रम से चक्षु, त्वक्, घ्राण, रसन और मन इन्द्रिय से होता है। पीतत्वाद्यभाव, यहाँ द्रव्यसमवेतनीलादिवृत्ति है। द्रव्य समवेत नीलादि में पीतत्वाद्यभाव विशेषण है । अर्थात् चक्षु इत्यादि इन्द्रियसंयुक्त(घटादि)समवेत(नीलादि) निरुपित विशेषणतात्मकसन्निकर्ष पीतत्वाद्यभाव में है और वहाँ द्रव्यसमवेतवृत्ति अभाववृत्ति लौकिकविषयता संबंध से पीतत्वाद्यभाव का चाक्षषादि प्रत्यक्षात्मक कार्य भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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