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________________ १३८ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १४, १५, १६, नैयायिक दर्शन सम्यग् हेतु नहीं है। (१४) छल : दूसरो के वचन के विघात के लिए विकल्पो को उत्पन्न करना उसे छल कहा जाता है। अर्थात् वादि द्वारा जो इष्ट अर्थ है उससे दूसरे अर्थ की उपपत्ति करके वादिने कहे हुए वाक्य का खंडन करना उसका नाम छल है। (१५) जाति : असम्यग् दूषणो को जाति कहा जाता है। (अथवा साधर्म्य और वैधर्म्य से साध्य का प्रतिषेध करना उसका नाम जाति है।) (१६) निग्रह स्थान : जो कहने से वक्ता का पराजय हो जाये=वक्ता निगृहीत हो जाये, उसे निग्रहस्थान कहा जाता है । इस तरह पास में (उपर) कहे हुए प्रमाण आदि का इस प्रकार से सामान्य से स्वरुप कहा । वहाँ प्रारंभ में प्रमाणतत्त्व की प्ररुपणा करने की इच्छावाले ग्रंथकारश्री प्रथम उसका सामान्यलक्षण और प्रमाण की संख्या कहते है। प्रमाण का सामान्य लक्षण "अर्थोपलब्धिहेतुः स्यात्प्रमाणम्" अर्थात् पदार्थ की उपलब्धि (ज्ञान) में जो कारण हो, उसको प्रमाण कहा जाता है। प्रमाण द्वारा ग्राह्य ऐसे स्तंभ (खंभा), कुम्भ (घडा), मेघ (बादल) आदि बाह्य अर्थो की तथा सुख-दुःखादि आंतरअर्थोकी उपलब्धि (ज्ञान) होती है। "व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिः" अर्थात् "पद की व्याख्या करने से विशेषज्ञान होता है।" इस न्याय से यहाँ अव्यभिचारि, अव्यपदेश्य (शब्द से कहा न जा सके ऐसा) व्यवसायात्मिक (निश्चयात्मक) अर्थोपलब्धि ग्रहण करनी चाहिए, परन्तु उपलब्धि मात्र नहीं। उस उपलब्धि का जो हेतु (कारण) है, वह प्रमाण है। अर्थोपलब्धि प्रमाण का फल है। अयमत्र भाव : कहने का तात्पर्य यह है कि, अव्यभिचारादि विशेषण से विशिष्ट अर्थोपलब्धि को उत्पन्न करनेवाली समग्रसामग्री अथवा उसका एकदेश चक्षु-प्रदीप-ज्ञानादि, कि जो बोधरुप (ज्ञानरुप) या अबोधरुप (अचेतनरुप) है। वह (अर्थोपलब्धिका) साधकतम (प्रकृष्ट उपकारक कारण) होने से प्रमाण कहा जाता है और अर्थोपलब्धि का जनकत्व प्रमाण में है और अर्थोपलब्धि (पदार्थ का ज्ञान) कराना वह प्रमाणका प्रामाण्य है और प्रमाण से जन्य अर्थोपलब्धि (अर्थ का ज्ञान) प्रमाण का फल है। वह अर्थोपलब्धि जब इन्द्रियो के द्वारा उत्पन्न होती है, तब प्रत्यक्ष कहा जाता है और जब लिंग द्वारा उत्पन्न होती है, तब अनुमान कहा जाता है। इस तरह से प्रमाणो का विशेष लक्षण आगे कहा जायेगा। __ केवल "अर्थोपलब्धि" के जो अव्यभिचारी, अव्यपदेश्य और व्यवसायात्मिक, ऐसे तीन विशेषण पहले कहे, उसमें अव्यपदेश्य विशेषण का शाब्द बोध में संबंध नहीं करना । क्योंकि, शाब्द बोध शब्द से जन्य होने के कारण व्यपदेश्य (शब्द से कहा जा सके वैसा) है। अर्थात् शाब्दप्रमाण से होनेवाली अर्थोपलब्धि अव्यपदेश्य नहीं होती, व्यपदेश्य ही होती है। प्रमाण के चार प्रकार है उसका वर्णन आगे कहा जायेगा । ॥१४-१५-१६।। अथ तच्चातुर्विध्यमेवाह । अब प्रमाण के चार प्रकार को कहते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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