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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-१, श्लोक - १४, १५, १६, नैयायिक दर्शन
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यहाँ श्लोक १४ में प्रमाण, प्रमेय और संशय, ऐसे तीनो पद के बाद "च"कार का प्रयोग है। वह प्रमाणादि तीनो को अन्योन्य अपेक्षा होने से समुच्चय के लिए किया है। कहने का मतलब यह है कि, प्रमाण द्वारा प्रमेय का ज्ञान होता है। प्रमेय प्रमाण के द्वारा ग्राह्य वस्तु है और प्रमेय का संशयरहित यथार्थज्ञान प्रमाण कराता होने से प्रमाण का कार्य प्रमेय का ज्ञान कराना और संशय का निराकरण करना वह है। संशय हो तब तक प्रमेय का ज्ञान यथार्थ नहीं बनता। इस प्रकार प्रमाण, प्रमेय और संशय तीनो को परस्पर अपेक्षा होने से "च" कार के प्रयोग द्वारा समुच्चय किया है।
(४) प्रयोजन : इच्छित साधने योग्य फल को प्रयोजन कहा जाता है। अर्थात् इच्छित वस्तु को उद्देश्य करकर उसको सिद्ध करने के लिए जो प्रवृत्ति होती है, उसे प्रयोजन कहा जाता है। (५) दृष्टांत : वादि और प्रतिवादि दोनो को संमत उदाहरण को दृष्टांत कहा जाता है। श्लोक १५ में "दृष्टांत" पद के बाद का "अपि" समुच्चयार्थक है और उसके बाद का "अर्थ" शब्द(५) आनन्तर्य अर्थ में है।
(६) सिद्धांत : सर्वदर्शन को संमत शास्त्रादि है, वह सिद्धांत है। (७) अवयव : पक्षादि अनुमान के अंगो को अवयव कहा जाता है। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयव है। (८) तर्कः संदेह के बाद होनेवाले (वस्तुके) अन्वयधर्म के चिन्तन को तर्क कहा जाता है। जैसे कि, यहा अभी 'स्थाणु' संभवित होती है। कहने का मतलब यह है कि, स्थाणु को देखने के बाद संदेह हुआ था कि "यह स्थाणु है या पुरुष ?" इस संदेह के बाद विचार आता है कि "अभी सन्ध्या का समय है, उसके आसपास पक्षी फिर रहे है, चलता फिरता नहीं होता, इसलिए 'स्थाणु' का ही संभव है।" इस तरह से स्थाणु के अन्वयधर्म के चिन्तन को तर्क कहा जाता है।
(९) निर्णय : संदेह के बाद तर्क द्वारा तय होता है कि "यह, यह ही है।" ऐसा अवधारण करना वह निर्णय कहा जाता है। जैसे कि, "यह स्थाणु ही है।" ऐसा निश्चय को निर्णय कहा जाता है। तर्क और निर्णय, दो पदो का द्वन्द्व समास हुआ है। (१०) वाद : गुरु के साथ तत्त्वनिर्णय के लिए बोलना (चर्चा करना) वह वाद कहा जाता है। (११) जल्प : दूसरो के साथ जीतने की इच्छा से बोलना (चर्चा करना) उसे जल्प कहा जाता है।
(१३) वितंडा : वस्तुतत्त्व को सोचे बिना बोल-बोल करना वह वितंडा कहा जाता है। (अथवा वादिने स्थापित किये हुए पक्ष का स्पर्श किये बिना (वादिके) तत्त्व का प्रतिवादि द्वारा खण्डन करना अथवा प्रतिवादि के द्वारा तत्त्व के विषय में जूठा इल्ज़ाम (आरोप) लगाना उसे वितंडा कहा जाता है।)
(१३) हेत्वाभास : जो हेतु नहीं है परंतु हेतु जैसा दीखाता हो उसे हेत्वाभास कहा जाता है। अर्थात् वे (५) मंगल, अनंतर आरंभ, प्रश्न, कात्य॑ इस अर्थ के लिए "अथ" शब्द का उपयोग होता है। यहाँ "अथ" शब्द
आनन्तर्य में इस्तेमाल हुआ है। एक पदार्थ कि जो अन्यपदार्थ से भिन्न हो, वह उससे अनन्तर कहा जाता है। अथवा जो दो पदार्थो के बीच कार्य कारणभाव होता है उस पदार्थो में जो कार्य है वह कारण से अनंतर कहा जाता है। यहाँ प्रथम अर्थ में 'अनंतर' है।
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