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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १४, १५, १६, नैयायिक दर्शन
इन्द्रियजत्वलिङ्गजत्वादिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिर्यतः स्यात्, तदेव प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य विशेषलक्षणं वक्ष्यते । केवलमत्राव्यपदेश्यमिति विशेषणं न शाब्दे संबन्धनीयं, तस्य शब्दजन्यत्वेन व्यपदेश्यत्वात् । अथ प्रमाणस्य भेदानाह-'तञ्चतुर्विधम्' तत्प्रमाणं चतुर्विधं चतुर्भेदम् ।।१४-१५१६।। टीकाका भावानुवाद :
यहां इस नैयायिक मत में प्रमाण-प्रमेय आदि १६ तत्त्व है। श्लोक में "तद्यथा" पद उपदर्शन में है। अर्थात् (जो प्रमाणादि १६ (सोलह) तत्त्व है।) वे इस अनुसार है। इस तरह से अर्थ करना।
(१) प्रमाण : जिसके द्वारा यथार्थज्ञान प्राप्त होता है, वह प्रमाण कहा जाता है। यानी कि यथार्थ ज्ञान का जनक (=कारण) प्रमाण है। __"प्रमीयते ज्ञानं जन्यते अनेन इति प्रमाणम् ।" (अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान प्रतीत होता है। अर्थात् उत्पन्न होता है। वह प्रमाण कहा जाता है।) इस व्युत्पत्ति से "प्रमाण" शब्द बना हुआ है। (यहाँ यह जानना कि "प्रमाकरणं प्रमाणं" अर्थात् सत्यज्ञान का असाधारण कारण वह प्रमाण कहा जाता है। यह भी प्रमाण का लक्षण अन्य ग्रंथो में दिखाई देता है।
ज्ञान का (४)जनक (उत्पादक-कारण) दो प्रकार के है। (१) अचेतन, (२) ज्ञान । वहाँ इन्द्रिय और अर्थ (विषय) का सन्निकर्ष, प्रदीप, लिंग और शब्दादि, कि जो अचेतन है, वह ज्ञान का कारण होने से प्रमाण है। और दूसरे ज्ञान की उत्पत्ति में जो ज्ञान का व्यापार किया जाता है, वह ज्ञान की उत्पत्ति में जनक होने से प्रमाणरुप है। परन्तु ज्ञान का अजनक ज्ञान प्रमाण का फल होता है, परन्तु प्रमाण नहि होता है। (अर्थात् जो ज्ञान दूसरे ज्ञान की उत्पत्ति नहीं करता, वह प्रमाण नहि होता, परन्तु फलरुप है।)
(२) प्रमेय : प्रमाण से जन्य ज्ञान के द्वारा ग्राह्य वस्तु को प्रमेय कहा जाता है। (वे प्रमेय बारह प्रकार के है।) (३) संशय : दोलायमान प्रतीति को संशय कहा जाता है। अर्थात् एक ही धर्मि में परस्पर विरुद्ध प्रतीति को संशय कहा जाता है। (४) यही बात न्ययामञ्जरी ग्रंथ में की है। न्यायमञ्जरी ग्रंथ में बताया है कि, "अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धि
विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम।" अर्थात अव्यभिचारी और असंग्धि ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला बोध (ज्ञान) स्वभाववाली और अबोध (अचेतन) स्वभाववाली सामग्री को प्रमाण कहते है। अर्थ (विषय) और इन्द्रिय के सन्निकर्ष के संबंध से जो प्रमा उत्पन्न होती है, उसमें अर्थ और इन्द्रिय का संबंध अबोध (अचेतन) स्वभाववाला है। उसी तरह से प्रदीप द्वारा अर्थ का प्रकाशन होगा, उसमें प्रदीप अबोध (अचेतन) स्वभाववाला है। इस प्रकार लिंग और शब्दादि से जो ज्ञान होता है, उसमें लिंग, शब्दादि अबोध (अचेतन) स्वभाववाले है और वह ज्ञान का कारण होने से प्रमाण माना जाता है। अनुमितिज्ञान में जो व्याप्ति आदि का ज्ञान कारणरुप बनता है, वे बोध (ज्ञान) स्वभाववाला है और वह भी अनुमितिज्ञान में कारण होने से प्रमाणरुप माना जाता है।
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