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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १३, नैयायिक दर्शन
वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च सहसिद्धं चतुष्टयम् ।।१।। अज्ञो (अन्यो) जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा । । २ । ।" [महा. भा. वन प० ३०/२८]
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अथवा नित्यैकसर्वज्ञ इत्येकमेव विशेषणं व्याख्येयम् । नित्यः सदैकोऽद्वितीयः सर्वज्ञो नित्यैकसर्वज्ञः । एतेनानादिसर्वज्ञमीश्वरमेकं विहायान्यः कोऽपि सर्वज्ञः कदापि न भवति । यत ईश्वरादन्येषां योगिनां ज्ञानान्यपरं सर्वमतीन्द्रियमर्थं जानानान्यपि स्वात्मानं न जानते, ततस्ते कथं सर्वज्ञाः स्युरित्यावेदितं भवति । तथा नित्यबुद्धिसमाश्रयो नित्याया बुद्धेर्ज्ञानस्य स्थानं, क्षणिकबुद्धिमत पराधीनकार्यापेक्षणेन मुख्यकर्तृत्वाभावादनीश्वरत्वप्रसक्तिरिति । इदृशविशेषणविशिष्टो नैयायिकमते शिवो देवः ।।१३ ॥
टीकाका भावानुवाद :
'नित्यश्चासौ एकश्च इति नित्यैकः तथा नित्यैकः स चासौ सर्वज्ञश्च इति नित्यैकसर्वज्ञः ।'- इस तरह से तीन विशेषणो का समास हुआ है
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वहाँ अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर, इस प्रकार सर्वकाल में एक स्वरुप रहनेवाले को कूटस्थनित्य कहा जाता है। अर्थात् नाश न होना, उत्पन्न न होना और स्थिर रहना, इस प्रकार सर्वकाल में एकरुप रहनेवाले को कूटस्थनित्य कहा जाता है । ईश्वर कूटस्थनित्य है ।
यदि ईश्वर को अनित्य मानोंगे तो, ईश्वर को अपनी उत्पत्ति में पर की अपेक्षा रहेगी और इसलिए कृतकत्व की आपत्ति आयेगी । अर्थात् कहने का मतलब यह है कि अनित्य की उत्पत्ति में पर की अपेक्षा होती है । और स्व की उत्पत्ति में दूसरो का व्यापार अपेक्षित है वह कृतक कहा जाता है । इसलिए ईश्वर को अनित्य मानने में कृतक मानने की आपत्ति आयेगी ।
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और यदि जगत्कर्ता (ईश्वर) कृतक हो तो, उसकी उत्पत्ति दूसरे कर्ता के द्वारा होनी चाहिए। क्योंकि अनित्य है और दूसरे कर्ता की उत्पत्ति भी अन्य कर्ता के द्वारा होनी चाहिए। इस तरह से नये नये कर्ताओ की कल्पनाएं करने से अनवस्थारुप नदी पार करनी कठिन (मुश्किल) बन जायेगी । अर्थात् अनवस्था दोष आयेगा । इसलिए ईश्वर को नित्य ही स्वीकारना चाहिए। वह ईश्वर नित्य के साथ साथ अद्वितीय - एक भी मानना ही पडेगा । यदि ईश्वर अनेक (बहु- ज्यादा) मानोंगे तो अर्थात् बहोत ईश्वर जगत के कर्ता है, ऐसा स्वीकार करोंगे तो, वे बहोत ईश्वरो की परस्पर भिन्न-भिन्न एक-दूसरे से विसदृशमति के व्यापार से एकएक पदार्थो का निर्माण विसदृश होगा और इससे जगत में असमंजस = अव्यवस्था खडी हो जायेगी, इसलिए ईश्वर का 'एक' विशेषण योग्य ही है ।
एक ईश्वर भी सर्वज्ञ है। वह सर्वज्ञ ईश्वर सर्वपदार्थो का समग्रतया ज्ञाता है । (अर्थात् कौन सा पदार्थ
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