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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १३, नैयायिक दर्शन ईश्वर में बुद्धिमत्पूर्वकत्व को साधनेवाला हेतु "कार्यत्व" प्रकरणसम बन जाता है। तो आप किस तरह कह सकते है कि 'कार्यत्व' हेतु प्रकरणसम नहीं है ?) १३२ उत्तरपक्ष ( नैयायिक) : हे पूर्वपक्षी! आपके अनुमान में बुद्धिमत्पूर्वकत्वेन ईश्वर जो साध्य है । वह आपके द्वारा प्रतीत या अप्रतीत चाहा जाता है ? (अर्थात् धर्मीरुप ईश्वर को आप जानते है या नहि ? यदि आप ऐसा कहोंगे कि साध्यमान ईश्वर अप्रतीत है । अर्थात् हम जानते नहीं है, तो आपके अनुमान में परिकल्पित हेतु आश्रयासिद्धि दोष से दूषित है, क्योंकि 'अशरीरत्व' हेतु का पक्ष अप्रसिद्ध है। और यदि ऐसा कहोंगे कि साध्यमान ईश्वर प्रतीत है अर्थात् जानते है तो जिस प्रमाण के द्वारा ईश्वर प्रतीत होता है उसी प्रमाण के द्वारा ही स्वयं ईश्वर का शरीर प्रतीत होगा। तो क्यों ईश्वर को सशरीरिक स्वीकार नहीं करते है ? इसलिए किस तरह से ईश्वर का 'अशरीरत्व' है ? इसलिए कार्यत्व हेतु प्रकरणसम दोष से दूषित नहीं है और इससे "सृष्टिसंहारकृच्छिवः" कहा वह सत्य है। उपरांत शिव-महेश्वर कैसे है ? विभु है । अर्थात् आकाश की तरह सर्वजगत में व्यापक है। (यदि ईश्वर को सर्वव्यापक विभु नहि मानोंगे तो ) ईश्वर नियतस्थान में रहे हुओ हो, तो अनियत (अलग-अलग) प्रदेश में रहे हुए पदार्थो का प्रतिनियत और यथावत् निर्माण करना संगत नहीं होता) जैसे कि एक स्थान में रहा हुआ कुम्भकार (कुम्हार) भी बहोत दूर रहे हुए घटादि को रचने में व्यापार ( प्रवृत्ति) करता नहीं है। (और इसलिए दूर-दूरतर रही हुए वस्तुओ के निर्माण में सर्वव्यापकत्व आवश्यक है ।) इसलिए ईश्वर विभुसर्वव्यापक है । वह महेश्वर (ईश्वर) नित्य, एक और सर्वज्ञ है । नित्यश्चासावेकश्च नित्यैकः स चासौ सर्वज्ञश्चेति विशेषणत्रयसमासः । तत्र नित्योऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः कूटस्थः । ईश्वरस्य नित्यत्वे पराधीनोत्पत्तिसव्यपेक्षया कृतकत्वप्राप्तिः । स्वोत्पत्तावपेक्षितपरव्यापारो हि भावः कृतक इष्यते । कृतकज्जगत्कर्ता स्यात्, सदा तस्याप्यपरेण कर्त्रा भाव्यमनित्यत्वादेव । अपरस्यापि च कर्तुरन्येन कर्त्रा भवनीयमित्यनवस्थानदी दुस्तरा स्यात् । तस्मान्नित्य एवाभ्युप-गमनीयः, नित्योऽपि स एकोऽद्वितीयो मन्तव्यः, बहूनां हि जगत्कर्तृत्वस्वीकारे परस्परं पृथक् पृथगन्यान्यविसदृशमतिव्यापृतत्वेनैकैकपदार्थस्य विसदृशनिर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्येतेति युक्तं “एकः " इति विशेषणम् । एकोऽपि सर्वज्ञः सर्वपदार्थानां सामस्त्येन ज्ञाता, सर्वज्ञत्वाभावे हि विधित्सितपदार्थोपयोगिजगत्प्रसृमरविप्रकीर्णपरमाणुकणप्रचयसम्यक्सामग्रीमीलनाक्षमतया याथातथ्येन पदार्थानां निर्माणं दुर्धटं भवेत् । सर्वज्ञत्वे पुनः सकलप्राणिनां संमीलितसमुचितकारणकलापानुरूप्येण कार्यं वस्तु निर्मिमाणः स्वार्जितपुण्यपापानुमानेन च स्वर्गनरकयोः सुखदुःखोपभोगं ददानः सर्वथौचितीं नातिवर्तेत । तथा चोक्तं तद्भक्तै:- “ -“B-48 ज्ञानमप्रतिघं यस्य (B-48 ) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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