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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १३, नैयायिक दर्शन कि विपक्ष ऐसे आकाश में कार्यत्व हेतु रहता न होने से, कार्यत्व हेतु विरुद्ध या अनैकान्तिक नहीं है।" ("विपक्षे सन्सपक्षे चासविरुद्धः अर्थात् जो हेतु विपक्ष में रहता हो और सपक्ष में न रहता हो, वह विरुद्ध कहा जाता है। जैसे कि, "शब्दः नित्य कार्यत्वात्" यहाँ कार्यत्व हेतु विपक्ष ऐसे घटादि में रहता है और सपक्ष ऐसे आकाशमें नहीं रहता है। इसलिए कार्यत्व हेतु विरुद्ध है। परन्तु उपरोक्त ईश्वर की सिद्धि के लिए दिये गये अनुमान में कार्यत्व हेतु विरुद्ध नहीं है। क्योंकिवह विपक्ष ऐसे आकाश में नहीं रहता है। “पक्षादित्रयवृत्तिरनैकान्तिकः" अर्थात् जो हेतु पक्ष, विपक्ष और सपक्ष तीनो में रहता है उसे अनैकान्तिक कहा जाता है। जैसे कि "शब्दः अनित्यः प्रमेयत्वात् ।" यहाँ प्रमेयत्व हेतु पक्ष = शब्द में, सपक्ष = घटमें, विपक्ष = आकाश में रहता है। इसलिए अनैकान्तिक है। परन्तु उपरोक्त ईश्वरसाधक अनुमान में कार्यत्व हेतु विपक्ष = आकाश में रहता नहीं है, इसलिए कार्यत्व हेतु अनैकान्तिक नहीं है। ___ उपरांत, कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट (कि जिसका दूसरा नाम बाधित है, वह) भी नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष और आगम से अबाध्य रुप से साध्यधर्म बुद्धिमत्पूर्वकत्व के धर्मी ऐसे पृथ्वी आदि विषय में "कार्यत्व" हेतु विद्यमान है। (कहने का मतलब यह है कि प्रत्यक्ष से पृथ्वी आदि कार्य के रुप में प्रतीत होता है। (और उसके कर्ता के रुप में हमारे जैसो को संभव नहीं है। इसलिए उसके कर्ता के रुप में नित्यज्ञानवाला ईश्वर सिद्ध होता है।) और पृथ्वी आदि कार्य के रुप में तथा उसके कर्ता के स्वरुप में नित्यज्ञानवाला ईश्वर आगम में बताया गया है। इसलिए प्रत्यक्ष और आगम से धर्मि ऐसे पृथ्वी आदि में कार्यत्व हेतु रहता होने से कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट भी नहीं है।) उपरांत "कार्यत्व" हेतु प्रकरणसम भी नहीं है। क्योंकि बुद्धिमत्पूर्वकत्वाभाव के सिद्ध करनेवाले दूसरे अनुमानका अभाव है। (कहने का मतलब यह है कि, जैसे "शब्दो नित्यः श्रावणत्वात्" इस अनुमान के "श्रावणत्व" हेतु का साध्य = नित्यत्व के अभाव अनित्यत्व का साधक दूसरा हेतु "कृतकत्व" है। जैसे कि "शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्।" इसलिए "श्रावणत्व" हेतु प्रकरणसम बनता है। परन्तु उपरोक्त ईश्वर की जगत्कर्तृत्व की सिद्धि के लिए बताये अनुमान में कार्यत्व हेतु प्रकरणसम बनता नहीं है। क्योंकि पृथ्वी आदि कार्य में बुद्धिमत्पूर्वकत्वाभाव को सिद्ध करनेवाला दूसरा कोई हेतु विद्यमान (मौजूद) नहीं है। इसलिए "कार्यत्व" हेतु प्रकरणसम भी नहीं है।) पूर्वपक्ष : जगत में कोई भी कार्य शरीरसहित के व्यक्ति द्वारा होता हुआ दीखाई देता है। और ईश्वर तो मुक्त आत्मा की तरह अशरीरि है। तो ईश्वर जगत के सर्जक और नाशक किस प्रकार से संभव है ? (अर्थात् भूभूधरसुधाकरदिनकरमकराकरादिकं बुद्धिमत्पूर्वकं, कार्यत्वात् । इस अनुमान में हेतु "कार्यत्व" के साध्य बुद्धिमत्पूर्वकत्व के अभाव को साधनेवाला "भूभूधरसुधाकरदिनकरमकराकरादिकं न बुद्धिमत्पूर्वकं (अर्थात् ईश्वरो विधाता न भवति ) अशरीरत्वात् निर्वृतात्मवत् ।" इस प्रति अनुमान से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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