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________________ १३० षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १३, नैयायिक दर्शन का समूह तीन भुवन में भी नहीं समायेगा । इसलिये वे महेश्वर जगत के सर्जन की तरह जगत का विनाश भी करते है। यहा इश्वर के जगत्कर्तृत्व की सिद्धि के लिए नैयायिक इस अनुसार के अनुमान प्रयोग का व्यवहार करते है। _भूभूधरसुधाकरदिनकरमकराकरादिकं बुद्धिमत्पूर्वकं, कार्यत्वात् । अर्थात् पृथ्वी, पर्वत, चन्द्र, सूर्य और समुद्रादि में बुद्धिमत्पूर्वकत्व है। क्योंकि वे पृथ्वीआदि कार्य है। जैसे कि “यत् यत् कार्यं तत् तत् बुद्धिमत्पूर्वकं यथा घटः" - अर्थात् जैसे घट कार्य है, इसलिए उसमें बुद्धिमत्पूर्वकत्व है, यानी कि बुद्धिमान के द्वारा बना हुआ है। (वैसे पृथ्वी आदि भी कार्य होने से बुद्धिमान पुरुष द्वारा बना हुआ है, वह अनुमान से सिद्ध होता है।) और यह पृथ्वी आदि कार्य है। इसलिये उसमें बुद्धिमत्पूर्वकत्व है और पृथ्वी आदि का जो बुद्धिमान सर्जनकार है, वह इश्वर ही है। इस अन्वय से इस जगत के सर्जनकार (२)इश्वर सिद्ध होता है। उपरांत, जो जो बुद्धिमत्पूर्वक नहीं है, वह वह कार्य नहीं है। जैसे कि आकाश, इस व्यतिरेक से भी सिद्ध होता है कि जो कार्य होता है वह बुद्धिमान कर्ता द्वारा बना हुआ होता है और पृथ्वी आदि में कर्तृत्व हमारे जैसे अल्पज्ञ लोग का संभवित नहीं है। इसलिये पृथ्वी आदि के कर्ता के रुप में इश्वर की सिद्धि होती है। पूर्वपक्ष : "भूभूधरसुधाकरदिनकरमकराकरादिकं बुद्धिमत्पूर्वकं कार्यत्वात् ।" इस प्रयोग में कार्यत्व हेतु (३)असिद्ध है। क्योंकि, पृथ्वी आदि में कार्यत्व नहीं है। पक्ष में हेतु की अवृत्ति होने से हेतु असिद्ध है। उत्तरपक्ष (नैयायिक): आपकी बात ठीक नहीं है। (क्योंकि कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं है।) क्योंकि जगत में पृथ्वी, पर्वत आदि अपने अपने कारण-कलाप से उत्पन्न होते हुए अथवा अवयवपन से कार्य के रुप में प्रसिद्ध है। इसलिए पृथ्वी आदि में कार्यत्व रहा हुआ है। (अवयव के समूह को अवयवी कहा जाता है। भिन्न-भिन्न अवयव साथ मिलकर अवयवी बनता है। इसलिए अवयवी पृथ्वी आदि भी कार्य है। परन्तु आकाश अवयवो का समूह न होने के कारण कार्य नहीं है।) इसलिये कार्यत्व हेतु "भूभूध..." पक्ष में रहता है। इसलिए असिद्ध नहीं है। उपरांत "कार्यत्व" हेतु विरुद्ध या अनैकान्तिक भी नहीं है। क्योंकि विपक्ष से अत्यंत व्यावृत्त है। यानी (२) ईश्वर का जगत्कर्तृत्व किस तरह से है,वह बताते है । न च तत्कर्तृत्वमस्मदादीनां संभवतीत्यतस्तत्कर्तृत्वेनेश्वर सिद्धिः । (न्याय सि.मु.) अर्थात् (उपर जो अनुमान द्वारा सिद्धि किया कि जो जो कार्य है वह वह बुद्धिमत्पूर्वक होता है । वहां पृथ्वी आदि का कर्तृत्व हमारे जैसो का संभवित नहीं है । (क्योंकि हमको उस उस कार्य के उपादानकारणो का ज्ञान नहीं है।) इसलिए पृथ्वी आदि के कर्ता के रुप में ईश्वर की सिद्धि होती है । (क्योंकि नित्यज्ञानवाले ईश्वर को उस उस कार्य के उपादानकारणो का ज्ञान होता है।) (३) यहाँ असिद्ध से स्वरुपासिद्ध समजना । यो हेतुः पक्षे न वर्तते स स्वरुपासिद्धः । जो हेतु पक्ष में न रहता है उसे स्वरुपासिद्ध कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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