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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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वैभाषिक मानते है कि निर्वाण के बाद भी चैतन्य की शुद्ध धारा अखंड रहती है । इसलिये निर्वाण वस्तुसत् पदार्थ है। सौत्रान्तिक मानते है कि निर्वाण के समय चित्त की तमाम धाराओ का विलय होता है। शुद्ध-चैतन्य भी नहीं रहता। इस प्रकार निर्वाण अवस्तुसत् है। योगाचारो का मानना है कि निर्वाण के बाद शुद्ध चित्त की धारा का अस्तित्व रहता है। इसलिए निर्वाण सत् पदार्थ है। माध्यमिको का मानना है कि निर्वाण के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता । इसलिये निर्वाण असत्य है। बौद्धमत में काल विषयक मान्यता : काल बौद्धो (दार्शनिको) के लिए नितान्त विवाद का विषय रहा है। भिन्नभिन्न दो संप्रदायो की इस विषय में विभिन्न मान्यता है। सौत्रान्तिको की दृष्टि में वर्तमान ही वास्तविक सत्य है। भूतकाल की और भविष्यकाल की सत्ता निराधार तथा काल्पनिक है।
विभज्यवादियों का कहना है कि वर्तमान धर्म तथा अतीत विषयो में जो कर्मो का फल अब तक उत्पन्न नहीं हुआ, वह दोनो पदार्थ वस्तुत: सत् है । वे भविष्यकाल का अस्तित्व नहीं मानते और अतीत विषयो का भी अस्तित्व नहीं मानते, कि जिसने अपना फल उत्पन्न कर दिया है। काल के विषय में इस प्रकार मानने के कारण संभवत: यह संप्रदाय “विभज्यवादि" नाम से अभिहित किया गया है। सर्वास्तिवादियों का कालविषयक सिद्धांत अपने नाम के अनुरुप है। उनके मत में समग्र धर्म त्रिकाल स्थायी होता है। वर्तमान (प्रत्युत्पन्न), भूत (अतीत) तथा भविष्य (अनागत), ये तीन कालो की वास्तविक सत्ता है। इस सिद्धांतो को पुष्ट करने के निमित्त नीचे बताई गई चार युक्तियाँ है। (१) तदुक्तेः बुद्ध के संयुक्तागम (३।१४) में तीन कालो की सत्ता का उपदेश किया है। "रुपमनित्यं अतीतम् अनागतं कः पुनर्वाद प्रत्युत्पन्नस्य ?" अर्थात् रुप अनित्य होता है। अतीत और अनागत होता है। उपरांत वर्तमान का क्या कहना? (२) द्वयात् = विज्ञान दो हेतुओ से उत्पन्न होता है। (१) इन्द्रिय (२) विषय । चक्षुर्विज्ञान चक्षुरिन्द्रिय तथा रुप से, श्रोत्रविज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय तथा शब्द से, मनोविज्ञान मन तथा धर्म से उत्पन्न होता है। यदि अतीत और अनागत धर्म है, तो मनोविज्ञान दो वस्तुओ से किस तरह उत्पन्न हो सकता है ? (३) सद्विषयात् : विज्ञान के लिये विषय की सत्ता होने से विज्ञान किसी आलंबन-विषय को लेकर ही प्रवृत्त होता है। यदि अतीत तथा भविष्यत् वस्तुओ का अभाव हो, तो विज्ञान निरालंबन (निर्विषय) हो जायेगा।
) फलात : फल उत्पन्न होने से । फल की उत्पत्ति के समय विपाकका कारण अतीत हो जाता है। अतीतकर्मो का फल वर्तमान में उपलब्ध होता है। यदि अतीत का अस्तित्व ही न हो, तो फल की उत्पत्ति ही सिद्ध नहीं हो सकेगी। इसलिये सर्वास्तिवादियों की दृष्टि से अतीत और अनागत की सत्ता उतनी ही वास्तविक है कि जितनी वर्तमान की।
यह युक्ति को सौत्रान्तिक मानने के लिए तैयार नहीं है। सौत्रान्तिक मत में अर्थ, क्रियाकारिता तथा उसके आविर्भाव का काल, ये तीनो में किसी प्रकार का अंतर नहीं है। सौत्रान्तिको "अतीतकर्म वर्तमानकालिक फलके उत्पादन में समर्थ होता है।" यह वैभाषिक युक्ति का विरोध किया है। उनका कहना है कि, दोनो कर्म समभावेन अपना फल उत्पन्न करते है। ऐसी दशा में अतीत तथा वर्तमान का भेद ही किंमूलक है ? वस्तु और क्रियाकारिता में यदि अंतर मानेंगे तो कौन सा कारण है कि जिससे वह क्रियाकारिता जो कोई काल में उत्पन्न की जाती है और दूसरे काल में बंद हो जाती है ?
अतीत के क्लेशो से वर्तमान कालिक क्लेश उत्पन्न नहीं होते। परन्तु उस क्लेशो के जो संस्कार अवशिष्ट रहते
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