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________________ १२४ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ है, उससे नवीन क्लेशो का उदय होता है। इसलिए वैभाषिको का काल विषयक सिद्धांत सौत्रान्तिको को मान्य नहीं है। नागार्जुनने (माध्यमिक कारिका के १६ वें प्रकरण में ) काल की समीक्षा की है। लोकव्यवहार में काल तीन प्रकारका होता है। भूत, वर्तमान और भविष्य । अतीत की हमको खबर (जानकारी) नहीं है। भविष्य का अभी जन्म नहीं हुआ है। बाकी रहा वर्तमान । उसकी सत्ता भी अतीत तथा भविष्य के आधार पर अवलंबित है। वर्तमान क्या है ? जो भूत नहीं है और भविष्य नहीं है। फलतः (परिणामस्वरुप) हेतुजनित होने से वर्तमान की कल्पना निराधार है। इसलिए काल की समग्र कल्पना अविश्वसनीय है। सम्मितीय संप्रदाय (पुद्गलवादि) के सिद्धांत : सम्मितीयों का प्रसिद्ध नाम वात्सीपुत्रीय है। वह स्थविरवाद की ही उपशाखा है। इस संप्रदाय का पुद्गल का सिद्धांत दुसरे संप्रदाय से भिन्न है। सम्मितीयों ने लोकानुभव की परीक्षा करके यह परिणाम (फैसला) निकाला कि, इस शरीर में 'अहं' इस प्रकार की एकाकार प्रतीति लक्षित होती है, वह क्षणिक नहीं चिरस्थायी है और वह प्रतीति पंचस्कन्धो के सहारे उत्पन्न नहीं की जा सकती। किसी भी पुरुष केवल एक व्यक्ति के रुप में कार्य करता है-सोचता है। परन्तु पांच विभिन्न वस्तुओ के रुप में नहीं। मनुष्य के गुण भिन्न-भिन्न जन्मो में एक ही रुप से अनुस्यूत (पिरोये हुए) रहते है और पांच स्कन्धो से अतिरिक्त एक नवीन मानस व्यापार विद्यमान है । जो अहंभाव का आश्रय है। तथा एक जन्म से दूसरा जन्म में कर्मो के प्रवाह का अवच्छिन्न रुप से बना रहता है। स्कन्धो के परिवर्तन के साथ साथ ही मानस व्यापार भी बदलता रहता है। इसलिये पंचस्कन्धो से अतीतजन्म तथा उसकी घटनाओंकी स्मृति नहीं हो सकती। इसलिए सम्मितीयों ने एक छठे मानस व्यापार की सत्ता मान्य की है। उस मानस व्यापार का नाम पुद्गल है। वह पुद्गल स्कन्धो के साथ ही रहता है। ___ इसलिए निर्वाण में जब स्कन्धो का निरोध हो जाता है, तब पुद्गल का भी उपशम अवश्य होता है। यह पुद्गल न तो संस्कृत कहा जाता है या न तो असंस्कृत. पुद्गल स्कन्धो के समान क्षणिक नहीं है। इसलिए उसमें संस्कृत धर्मो के गुण विद्यमान नहीं रहते । पुद्गल निर्वाण की भांति न तो अपरिवर्तनीय है, न तो नित्यस्थायी है, इसलिए उसको असंस्कृत भी नहीं कहा जा सकता । ___ सम्मितीय संप्रदाय के अन्य सिद्धांत : (१) पंचविज्ञान न तो राग उत्पन्न करता है, न तो विराग । (२) विराग को उत्पन्न करने के लिए साधक को संयोजन-बंधन तोडने पडते है।(३) दर्शन मार्ग में रहने से संयोजनो का नाश नहीं होता। परन्तु भावनामार्ग में रहने से उस संयोजनो का नाश अवश्य होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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