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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ करने की प्रवृत्ति होती है। परलोक में आत्मा को सुख पहुँचाने के लिए ही मनुष्य नाना (विविध प्रकार के) अकुशलकर्मो का आरंभ करता है । इसलिये समस्तक्लेश और दोष यह आत्म-दृष्टि (सत्कायदृष्टि) का विषम परिणाम है । इसलिये आत्मा का निषेध करना क्लेशनाश का परम उपाय है । उसको कहा जाता है पुद्गलनैरात्म्य । हीनयानी ऐसे प्रकार के नैरात्म्य को मानते है । परन्तु इस नैरात्म्य के ज्ञान से केवल क्लेशावरण का ही क्षय होता है। इससे अतिरिक्त एक दूसरे आवरण की भी सत्ता है जिसको ज्ञेयावरण कहा जाता है। नैरात्म्य दो प्रकार का है। (१) पुद्गलनैरात्म्य, (२) धर्मनैरात्म्य । रागादि क्लेश आत्मदृष्टि से उत्पन्न होते है । इसलिए पुद्गलनैरात्म्य के ज्ञान से प्राणी सर्व क्लेशो को छोड देते है। जगत के पदार्थो के अभाव या शून्यता के ज्ञान से सत्यज्ञान के उपर पडा हुआ आवरण अपनेआप दूर हो जाता है और सर्वज्ञता की प्राप्ति के लिए ये दोनो आवरण (क्लेशावरण, ज्ञेयावरण) का दूर होना अत्यंत आवश्यक है । क्लेश मोक्ष की प्राप्ति के लिये आवरणका काम करता है अर्थात् मुक्ति को रोकता है। ज्ञेयावरण सब ज्ञेयपदार्थो के उपर ज्ञान की प्रवृत्ति को रोकता है। इसलिए ज्ञेयावरण दूर हो जाने से सर्ववस्तुओ में अप्रतिहत ज्ञान उत्पन्न होता है। जिससे सर्वज्ञान की प्राप्ति होती है। आवरण के ये दो प्रकार के भेद दार्शनिक दृष्टि से महत्त्व के है। महायानानुसार हीनयानी की मान्यतानुसार के निर्वाण में केवल पहले आवरण (क्लेशावरण) का ही अपनयन होता है। परन्तु शून्यता के ज्ञान से दूसरे प्रकार के आवरण का भी नाश होता है। जब तक दूसरे आवरण का नाश न हो तब तक वास्तविक निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती। परन्तु हीनयानी लोग इस भेद को (दूसरे भेद को) मानने के लिए तैयार नहीं है। उनकी दृष्टि से ज्ञान प्राप्त कर लेने से अहँतो को ज्ञान अनावरण हो जाता है। परन्तु महायानी की वह कल्पना नितान्त मौलिक है। हीनयानी की मान्यतानुसार "अर्हत्" पद की प्राप्ति ही मानवजीवन का अंतिम लक्ष्य है। परंतु महायान के अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। इस उद्देश्य की भिन्नता के कारण निर्वाण की कल्पना में भेद है। नागार्जुन ने निर्वाण की परीक्षा माध्यमिक कारिका-२५वी में बहोत विस्तार से की है। वहाँ कहा है कि अप्रहीणमसम्प्राप्तमनुच्छिन्नमशाश्वतम् । अनिरुद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाणमुच्यते । अर्थात् निर्वाण न तो छोडा जा सकता है। न तो प्राप्त किया जा सकता है। वह पदार्थ न तो उच्छेद होनेवाला पदार्थ है कि न शाश्वत पदार्थ है। न तो वह निरुद्ध है। न तो वह उत्पन्न है। उत्पत्ति होने पर ही कोई वस्तु का निरोध होता है। निर्वाण दोनो से भिन्न है। __महायानिओ के मतानुसार निर्वाण और संसार में कुछ भी भेद नहीं है। कल्पना की जाल का क्षय होना उसका ही नाम मोक्ष-निर्वाण है। निर्वाण और संसार के विषय में चार मतो की विशेषता: (१) वैभाषिक संसार सत्य निर्वाण सत्य (२) सौत्रान्तिक संसार सत्य निर्वाण असत्य (३) योगाचार संसार असत्य निर्वाण सत्य (४) माध्यमिक संसार असत्य निर्वाण असत्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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