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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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को देखकर बिंब की सत्ता का हम अनुमान करते है, उसी प्रकार से चित्तरुप पटके वे प्रतिबिंबो से हमको प्रतीति होती है कि बाह्य अर्थ की भी सत्ता अवश्य है । इसलिये बाह्य अर्थ की सत्ता अनुमान के उपर अवलंबित (आधारित) है। यह बौद्धो का दूसरा संप्रदाय सौत्रान्तिक कहा जाता है।
तीसरा मत बाह्य अर्थ की सत्ता नहीं मानता है । सौत्रान्तिक के द्वारा कल्पित प्रतिबिंब द्वारा बिंबसत्ता का अनुमान उनको अभीष्ट नहीं है। उनकी दृष्टि में बाह्य भौतिक जगत नितान्त मिथ्या है। चित्त ही एकमात्र सत्ता है। जिसके नाना (भिन्न-भिन्न) प्रकार के आभास को हम जगत से पहचानते है। चित्त को ही विज्ञान कहा जाता है। यह मत विज्ञानवादि योगाचारो का है।
सत्ताविषयक चौथा मत यह है कि वे चित्त की भी सत्ता स्वतंत्र नहीं मानता। जिस प्रकार से बाह्यार्थ असत् है । उसी प्रकार से विज्ञान भी असत् है । शून्य ही परमार्थ है। जगत की सत्ता व्यावहारिक है । शून्य की सत्ता पारमार्थिक है । इस मत के अनुयायी शून्यवादि या माध्यमिक कहे जाते है। इस प्रकार चारो संप्रदाय की सत्ता के विषय में सैद्धान्तिक मान्यता इस अनुसार है । (१) वैभाषिक - बाह्यार्थप्रत्यक्षवाद, (२) सौत्रान्तिक - बाह्यार्थानुमेयवाद, (३) योगाचार - विज्ञानवाद, (४) माध्यमिक - शून्यवाद।
उपरोक्त चारो संप्रदायो में वैभाषिक का संबंध हीनयान से है तथा अंतिम तीन संप्रदाय का संबंध महायान से है। ये तीनो मतो का सत्ता के विषय में विभिन्न मत है। फिर भी महायान के सामान्यमत का स्वीकार करते है । तत्वमीमांसा की दृष्टि से वैभाषिक एक छोर पे है । तो योगाचार और माध्यमिक एक छोर पे है । सौत्रान्तिक वे दोनो के बीच में है। कुछ अंशो में वह वैभाषिक का समर्थक है। परन्तु अन्यसिद्धांत योगाचार की
ओर झूकते है। हीनयान और महायान की निर्वाण के विषय में मान्यता : (१) हीनयान : हीनयान मतानुयायी अपने को तीन प्रकार के दुःखो से पीडित मानते है । () दुःख - दुःखता : अर्थात् भौतिक और मानसिक कारणो से उत्पन्न होनेवाला क्लेश । (ii) संस्कार - दुःखता : उत्पत्तिविनाशशाली जगत की वस्तुओ से उत्पन्न होनेवाला क्लेश । (iii) विपरिणाम दुःखता : अर्थात् सुख, दुःख रुप में परिणत होने से उत्पन्न क्लेश। आगे बताये गये अष्टाङ्गिक मार्ग के अनुशीलन से तथा जगत के पदार्थो में आत्मा का अस्तित्व नहीं है, सांसारिक पदार्थो की अनित्यता, आर्यसत्य तथा अनात्मतत्त्व का ज्ञान इत्यादि ज्ञान का बारबार परिशीलन करने से क्लेशो से सदा के लिये मुक्ति प्राप्त करता है।
हीनयानीयो की मान्यता है कि निर्वाण क्लेशाभावरुप है। जब क्लेश के आवरण का सर्वथा परिहार होता है, तब निर्वाण की अवस्था (स्थिति) का जन्म होता है। निर्वाण को सुखरुप बताया गया है, परन्तु अधिकतर बौद्धनिकाय निर्वाण को अभावात्मक ही मानते है।
वैभाषिको के मत में निर्वाण क्लेशाभावरुप माना जाता है। परंतु अभाव होने पर भी वह सत्तात्मक पदार्थ है। वैभाषिक निर्वाण को स्वतः सतावान् पदार्थ नहीं मानते है। निर्वाण की प्राप्ति के अनन्तर सूक्ष्म
चेतना विद्यमान रहती है कि जो चरम शांति में डूबी हुई रहती है। (२) महायान : हीनयान के मतानुसार निर्वाण का स्वरुप बताया परन्तु वह स्वरुप महायानवाले मानने के लिए तैयार
नहीं है। उनके मतानुसार निर्वाण होने से क्लेशावरण का क्षय होता है। ज्ञेयावरण की सत्ता रहती है।
हीनयान की दृष्टि में राग-द्वेष की सत्ता पंचस्कन्ध के रुप से अथवा उससे भिन्न प्रकार की आत्मा की सत्ता मानने के उपर निर्भर (आधारित) है । आत्मा की सत्ता रहने से ही मनुष्य के हृदय में यज्ञ-यागादिक में हिंसा
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