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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ ११३ प्रतीत्य मातापितरौ यथोक्तः पुत्रसंभवः । चक्षुरुपे प्रतीत्यैवमुक्त विज्ञानसम्भवः ॥ ३७॥ इसलिये दृष्टा के अभाव में द्रष्टव्य तथा दर्शन विद्यमान नहीं है। तो विज्ञान की कल्पना किस प्रकार से सिद्ध हो सकेगी? जैसे कि, हम किसी वस्तु को देख रहे है, वह वैसी ही है, उसका निश्चित ज्ञान हमको किस तरह से होगा? एक ही वस्तु को भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न आकार को देखकर बताते है। दर्शन के समान ही अन्य प्रत्यक्षज्ञान की दशा है। इसलिये ज्ञान की धारणा ही सर्वथा भ्रान्त है। नागार्जुन के तर्क का यह निष्कर्ष है कि, जगत आभासमात्र है।जगत के पदार्थो का अस्तित्व मानना वह स्वप्न के मोदक से क्षुधा शांत करने बराबर है। मरीचिका (मृगजल) के जल से प्यास बुजाने बराबर है। प्रातःकाल में घास के उपर पडे हुए ओस की बुन्द दिखने में मोती के समान चमकते है परन्तु सूर्य के उग्र किरणो के पड़ने से तुरंत ही विलीन हो जाती है । जगत के पदार्थो की दशा भी इस प्रकार की है। असाधारण दृष्टि से देखने में सत्य तथा अभिराम ( आनंद देनेवाला) प्रतीत होता है। परन्तु तर्क का प्रयोग करने के साथ ही स्वभावशून्य बनकर अनस्तित्व में मिल जाता है। इसलिये नागार्जुन का कथन है कि शून्य ही एकमात्र सत्ता है, जगत प्रतिबिंब तुल्य है। (ख) सत्तामीमांसा :- माध्यमिको के मत में सत्य ( सत्ता) दो प्रकार की है।(१) सांवृत्तिक (सावृत्तिक) विज्ञान ( =अविद्या जनित व्यावहारिक सत्ता) (२) पारमार्थिक सत् ( = प्रज्ञाजनित सत्य) ये दो ही सत्य का बुद्धने उपदेश दिया था। इसलिये नागार्जुन का यह द्विविधसत्य का सिद्धांत अभिनव नहीं है। द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोक संवृत्ति सत्यं च सत्यं च परमार्थतः । माध्यमिक वृत्ति - पृ. ४९२, बोधि चर्या - पृ. ३६१) सांवृत्तिक सत्य यह है कि जो संवृत्ति द्वारा उत्पन्न हुआ हो । संवृत्ति शब्द की व्याख्या तीन प्रकार की जाती है। (१) संवृत्ति शब्द का अर्थ है अविद्या, कि जो सत्य वस्तु के उपर आवरण डालती है। (यही बात बोधिचर्या पञ्जिकामें पृ. ३५२के उपर की है । संवियत आवियते यथाभूतपरिज्ञानं स्वभावावरणाद् आवृत्तप्रकाशनाच्चानयेति संवृत्तिः अविद्या ह्यसत्पदार्थस्वरुपारोपिका स्वभावदर्शनावरणात्मिका च सती संवृत्तिरुपपद्यते ।) उसके अविद्या, मोह तथा विपर्यास पर्यायवाचि शब्द है । अविद्या का स्वरुप आवरणात्मक है। कहा है कि - अभूतं खापयत्यर्थं भूतमावृत्त्य वर्तते । अविद्या जायमानेव कामलातङ्कवृत्तिवत् । अर्थात् जिस प्रकार से कामला (पीलिया पाण्डु) रोग होने से रोगी श्वेत वस्तु के रुप को छिपा देता है और उसके उपर पीले रंग को आरोपित करता है। उसी प्रकार से अविद्या भूत के सत्य स्वरुप को आवृत्त करके अविद्यमान रुप को आरोपित कर देती है। इस तरह से संवृत्ति का अर्थ अविद्या है। (२) संवृत्ति का अर्थ है हेतु - प्रत्यय के द्वारा उत्पन्न वस्तु का रुप । ("प्रतीत्य समुत्पन्नं वस्तुरूपं संवृत्तिरुच्यते" अर्थात् कारण से उत्पन्न होते वस्तु के रुप को संवृत्ति कहा जाता है।) सत्य पदार्थ अपनी सत्ता के लिए किसी कारण से उत्पन्न नहीं होता । इस कारण से उत्पन्न होनेवाली लौकिकवस्तु सांवृत्तिक कही जाती (३) संवृत्ति से वे चिन्हो तथा शब्दो से अभिप्राय है, जो साधारणतया मनुष्यो के द्वारा ग्रहण किया जाये तथा प्रत्यक्ष के उपर अवलंबित रहता है। कहा है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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