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________________ ११४ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ ★ प्रत्यक्षमपि रुपादि प्रसिद्धया न प्रमाणतः । अशुच्यादिषु शुच्यादि प्रसिद्धिरिव सा मृषा ॥ बोधिचर्या ९।६॥ रुप शब्दादि को परमार्थ सत्य नहीं मानना चाहीए। क्योंकि, लोक के द्वारा एक ही प्रकार से ग्रहण किया जाता है और इन्द्रिय द्वारा ग्रहण की जाती वस्तु यदि वास्तविक हो, तो जगत के सारे मूर्खलोग तत्त्वज्ञ बन जायेगा। सत्य की खोज के लिये विद्वानो का कभी भी आग्रह न रहता । प्रज्ञाकर मतिने स्त्री के शरीर का उदाहरण लिया है। कामुक को वह पवित्र तथा शचिमय प्रतीत होता है। संवृत्ति के दो प्रकार : "सांवृत्तिक सत्य" का अर्थ है अविद्या या मोह के द्वारा उत्पादित काल्पनिक सत्य । जिसको अद्वैतवेदांत में "व्यावहारिक सत्य" कहते है। इस सत्य के दो प्रकार है। (१) लोकसंवृत्ति, (२) अलोकसंवृत्ति । घटपटादि को सामान्य जनसमाज सत्य कहकर मानते है वह लोकसंवृत्ति । कुछ (पांडुरोगी) लोग शंख में पीतरंग का ग्रहण करते है वह अलोकसंवृत्ति है। प्रज्ञाकारमतिने यह दोनो को ही क्रमशः (१) तथ्यसंवृत्ति तथा (२) मिथ्यासंवृत्ति की संज्ञा दी है। तथ्यसंवृत्ति का अर्थ है-किंचित् कारण से उत्पन्न तथा दोषरहित इन्द्रियो द्वारा उपलब्ध रुप ( नीलादि), वह लोक से ( व्यवहार से ) सत्य है। मिथ्यासंवृत्ति भी किंचित् प्रत्ययजन्य है । परन्तु वह दोषसहित इन्द्रियो से उपलब्ध होता है । जैसे कि, मरीचिका, प्रतिबिम्ब आदि । चार आर्यसत्यो में दुःख, समुदय तथा मार्ग संवृत्तिसत्य के अन्तर्गत जाता है और केवल निरोध (निर्वाण ) सत्य ही परमार्थ सत्य के अन्तर्गत जाता है। अग्राह्य होने पर भी संवृत्तिसत्य का हम तिरस्कार नहीं कर सकते । क्योंकि, व्यवहार सत्य में रहकर ही परमार्थ की देशना दी जाती है। इसलिये परमार्थ के लिये व्यवहार उपादेय है। इसलिये कहा है कि : व्यवहारमनादृत्य परमार्थो न देश्यते । परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ आदिशान्त : माध्यमिक ग्रंथो में जगत के पदार्थो के लिए "आदिशान्त" तथा "नित्यशान्त" शब्दो का प्रयोग किया है। शांत का अर्थ है स्वभावरहित, विशिष्टसत्ता से विहीन । नागार्जुन की उक्ति इस विषय में स्पष्ट है। प्रतीत्य यद्यद् भवति, तत्तच्छान्तं स्वभावतः । तस्मादुत्पद्यमानं च शान्तमुत्पत्तिरेव तु । मा. का. ७।१६ ॥ अर्थात् जो जो वस्तु कोई अन्य वस्तु के निमित्त से (प्रतीत्य) उत्पन्न होती है, वे दोनो स्वभाव से ही शांतस्वभावहीन होते है। (माध्यमिकमत के आचार्य) श्री धर्मकीर्ति का इस विषय में कथन है कि - जो पदार्थ विद्यमान रहते है, वे अपना अनपायी स्वभाव अवश्य धारण करते है और विद्यमान होने के कारण किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता । और किसी कारण से उत्पन्न भी नहीं होता । प्रसन्नपदा (मा.वृ.) में यही बात की है। ___ "यो हि पदार्थो विद्यमान सः सस्वभावः स्वेनात्मना स्वं स्वभावमनपायिनं बिभर्ति । स संविद्यमानत्वान्नैवान्यत् किञ्चिदपेक्षते नाप्युत्पद्यते ।" परन्तु जगत के पदार्थों में यह नियम दृष्टिगोचर नहीं होता. वस्तुओका अपना स्वरुप बदलता रहता है। आज जो मिट्टी है वह कालांतर में घडा और उसका प्याला बनता है। इसलिये जगत के पदार्थ नि:स्वभाव-शान्त है। घट और मिट्टी, अंकुर और बीज दोनो स्वभावहीन है। इसलिये शान्त है । माध्यमिकवृत्ति में पृ.१६० के उपर यही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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