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________________ ११२ ★ फल उत्पन्न कर सकेगा ? कहा है कि.... फले सति न मोक्षाय न स्वर्गायोपपद्यते । मार्गः सर्वक्रियाणां च नैरर्थक्यं प्रसज्ज्यते ॥ मा.का. ८५ ॥ यदि कर्म की प्रवृत्ति स्वभावतः मानी जाये तो, निःसंदेह शाश्वत हो जायेगी । परन्तु वस्तुतः कर्म वैसा नहीं है । कर्म यह है कि जिसको स्वतंत्र कर्ता अपनी क्रिया द्वारा संपादन करता है। शाश्वत माना जायेगा तो उसका क्रिया के साथ संबंध किस तरह से माना जायेगा ? क्योंकि जो वस्तु शाश्वत होती है, वह कृतक (क्रिया के द्वारा निष्पन्न) नहीं होती । बौद्धदर्शन का विशेषार्थ यदि कर्म अकृतक हो तो, किये बिना भी फल की प्राप्ति होने लगेगी (अकृताभ्यागम) और निर्वाणकी इच्छावाला व्यक्ति भी ब्रह्मचर्य का निर्वाह किये बिना ही खुद को कृतकृत्य मानने लगेगा । इसलिये न तो जगत में कर्म विद्यमान है, न कर्म का फल. दोनो कल्पनाएं केवल व्यवहारकी सिद्धि के लिये है । ज्ञान परीक्षा : ज्ञान के स्वरुप का विचार करने से ज्ञान भी अनेक प्रकार के विरोध से परिपूर्ण प्रतीत होता है । छः इन्द्रियो के रुपादि छः विषय है। वे विषयो का प्रत्यक्षज्ञान इन्द्रियो के द्वारा होता है । परन्तु वह आभासमात्र है। तथ्य नहीं है | उदा. चक्षु जब खुद को ही नहीं देखती, तब अन्य वस्तुरुप को कैसे करके देख सकेगी ? अग्नि का दृष्टांत ले सके वैसा नहीं है । "जिस प्रकार से अग्नि खुद को नहीं जलाती, केवल बाह्यपदार्थ (इन्धनादि) को जलाती है, उसकी तरह चक्षु भी खुद अपना दर्शन करने में असमर्थ होने पर भी रुप के प्रकाश में समर्थ है।" परंतु यह कथन एक मौलिकभ्रान्ति के उपर अवलंबित है । गति के समान "जलाना" क्रिया स्वयं असिद्ध है। इसलिये उसका दृष्टांत देखकर चक्षु के दर्शन की घटना पुष्ट नहीं हो सकती। क्योंकि, “दर्शन” क्रिया भी गति, स्थिति के समान निर्मूल कल्पनामात्र है। 1 जो वस्तु दृष्ट है, उसके लिये वह 'दीखता है' (दृश्यते) ऐसा वर्तमानकालीक प्रयोग नहीं किया जा सकता और जो वस्तु अदृष्ट है, उसके लिये भी दृश्यते का प्रयोग अनुपयुक्त है। वस्तु दो ही प्रकार की हो सकती है - दृष्ट और अदृष्ट | ये दोनो से अतिरिक्त दृश्यमान वस्तु की सत्ता हो ही नहीं सकती। माध्यमिक कारिका में कहा है कि ...... 1 न दृष्टं दृश्यते तावत् अदृष्टं नैव दृश्यते । दृष्टादृष्टविनिर्मुक्तं दृश्यमानं न दृश्यते ॥ इस प्रकार से दर्शन क्रिया के अभाव में उसका कोई भी कर्ता सिद्ध नहीं हो सकता । यदि कर्ता विद्यमान भी रहे, तो भी वह अपना दर्शन नहीं कर सकता, तो वह अन्य वस्तुओ का दर्शन किस प्रकार से कर सकेगा ? दर्शन की अपेक्षा करके या निरपेक्षभाव से द्रष्टा की सत्ता सिद्ध नहीं कर सकते। यदि द्रष्टा सिद्ध है तो उसको दर्शनक्रिया की अपेक्षा ही किसके लिये हो ? और यदि असिद्ध है तो भी वन्ध्यापुत्र के समान वह दर्शन की अपेक्षा नहीं करेगा । दृष्टा और दर्शन परस्पर सापेक्षिक कल्पनाएँ है। इसलिये दृष्टा को दर्शन से निरपेक्ष भाव से स्थित मानना वह भी न्यायसंगत नहीं है । इसलिये दृष्टाका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये दृष्टा के अभाव में द्रष्टव्य (विषय) तथा दर्शन का अभाव सुतरां सिद्ध है । सत्य तो यह है कि, रुप की सत्ता के उपर चक्षु अवलंबित है और चक्षु की सत्ता के उपर रुप नील-पितादि रंगो की कल्पना से हम चक्षु के अनुमान करते है । और चक्षु की स्थिति नीलादि रंगो का ध्यान करती है। 'जिस प्रकार से माता-पिता के कारण पुत्र का जन्म होता है । उसी प्रकार से चक्षु और रूप को निमित्त मानकर चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति होती है । माध्यमिक कारिका में कहा है कि - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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