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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ और यदि स्वतंत्ररुप से ही दर्शनादिक्रियाएं संपन्न होने लगे, तो कर्तारुप से आत्मा को मानने की आवश्यकता क्या है ? इसलिये नागार्जुन ने कहा है कि - प्राक् च यो दर्शनादिभ्यः साम्प्रतं चोर्ध्वमेव च । न विद्यतेऽस्ति नास्तीति विवृत्तास्तत्र कल्पना ॥ ( मा.का. ९ | १२ ॥ ) साधारण रुप से पंचस्कन्ध- रुप, संज्ञा, वेदना, संस्कार तथा विज्ञान को आत्मा बताया जाता है। परन्तु वह उचित नहीं है । क्योंकि स्कन्धो की उत्पत्ति तथा नाश होता है । तदात्मक होने से आत्मा का भी उदय तथा व्यय मानने की आपत्ति आयेगी। स्कन्ध उपादान है, आत्मा उपादाता है । क्या उपादान - उपादाता - ग्राह्य तथा ग्राहक कभी एक सिद्ध हो सकते है ? नहीं हो सकते, तो ऐसी अवस्था में आत्मा को स्कन्धात्मक किस प्रकार से स्वीकार किया जा सकता है ? माध्यमिक कारिका में कहा है कि १११ (न चोपादानमेवात्मा व्येति तत् समुदेति च । कथं हि नामोपादानमुपादाता भविष्यति ॥ २७६ ॥ ) यदि आत्मा को स्कन्धो से व्यतिरिक्त मानेंगें तो वह स्कन्ध लक्षण ( स्कन्धो द्वारा लक्षित) नहीं होगा । इसलिये विषम स्थिति होगी कि हम आत्मा को न स्कन्धो से अभिन्न मान सकेंगे या न भिन्न । आत्मा स्कन्धा यदि भवेदुदयव्ययभाग् भवेत् । स्कन्धेभ्योऽन्यो यदि भवेद् भवेदस्कन्धलक्षणः ॥ मा. का. १८१ ॥ इसलिये आत्मा की असिद्धि होने से आत्मीय उपादान ( स्कन्धो) की भी सिद्धि नहीं होती । कुछ लोग आत्मा को कर्ता मानते है । नागार्जुन के मतानुसार कर्ता और कर्म की भावना भी निःसार है । क्रिया करनेवाले व्यक्ति को कर्ता कहा जाता है। वह यदि विद्यमान है, तो क्रिया नहीं कर सकता । क्रिया के कारण ही उसको कारकसंज्ञा प्राप्त हुई है। ऐसी दशा में उसको दूसरी क्रिया करने की आवश्यकता ही नहीं है। तो कर्म (क्रिया) की स्थिति के बिना कारक (कर्ता) को किस प्रकार मानेंगें ? (सद्भूतस्य क्रिया नास्ति, कर्म च स्यादकर्तृकम् । मा.का. ८।२ ।। ) परस्पर सापेक्ष होने से क्रिया, कारक तथा कर्म की स्वतंत्र सत्ता नहीं मानी जा सकती। क्रिया का असंभव होने से धर्माधर्म विद्यमान नहीं रह सकते । देवदत्त अहिंसादि क्रिया का संपादन करता है, तब वह धर्मभागीअधर्मभागी बनता है। यदि क्रिया ही असिद्ध बन गई है, तो धर्म-अधर्म का असिद्ध होना सुतरां निश्चित है । धर्माधर्म के अभाव में उसके फल सुगति-दुर्गति का भी अभाव होगा। तो स्वर्ग या मोक्ष के लिये विहितमार्ग भी व्यर्थ है । इसलिये कहा है कि..... धर्माधर्मा न विद्यते क्रियादीनामसम्भवे । धर्मे चासत्यधर्मे च फलं तज्जं न विद्यते ॥ इसलिये नागार्जुन के मतानुसार आर्यसत्यो का भी अस्तित्व मायिक है । इस प्रकार से आत्मा की कल्पना किसी भी तरह से मान्य नहीं है । सारांश में..... आत्मेत्यपि प्रज्ञपिमनात्मेत्यपि देशितम् । बुद्धैर्नात्मा न चानात्मा कश्चिदेत्यपि देशितम् । मा.का.१८।६ ॥ कर्मफल परीक्षा : कर्म का सिद्धांत वैदिकधर्म के समान बौद्ध धर्म को भी संमत है। जो कर्म किया जाता है, उसका अवश्य फल प्राप्त होता है । परन्तु परीक्षा करने से यह तथ्य प्रमाणित नहीं होता है। कर्म का फल तुरंत ही प्राप्त न होने से कालान्तर में संपन्न होता है । यदि कर्म के विपाक तक कर्म टिक सके, तो कर्म नित्य हो जायेगा और यदि विपाक तक उसकी सत्ता मानकर विनाशशाली माना जाये तो अविद्यमान कर्म किस प्रकार से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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