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के व्यापारो से हमको मुक्त नहीं कर सकता। ये तीनों के समुदाय को हम आत्मा कहते है, केवल व्यवहार लिए । वस्तुत: कोई आत्मा है ऐसा मानने के लिए नागार्जुन तैयार नहीं है। नागार्जुन का कहना है कि...
बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
कुछ लोग (बौद्ध का जो विशिष्ट संप्रदाय है कि जो 'पुद्गलवाद' का समर्थक है । उनको सम्मितीय लोग कहा जाता है ।) दर्शन, श्रवण, वेदन आदि होने के पूर्व ही एक पुद्गल पदार्थ (आत्मा, जीव ) की कल्पना मानते है । उनकी युक्ति है कि (जो माध्यमिक कारिका में बताई गई है ।)
कथं ह्यविद्यमानस्य दर्शनादि भविष्यति । भावस्य तस्मात् प्रागेभ्यः सोऽस्तिभावो व्यवस्थितः ॥ ९ २ || विद्यमान व्यक्ति ही उपादान का ग्रहण करती है । विद्यमान देवदत धन का संग्रह करता है। अविद्यमान वन्ध्यापुत्र ग्रहण नहीं करता है । इसलिये विद्यमान होने से ही पुद्गल दर्शन, श्रवणादि क्रियाओ को ग्रहण करेगा, अविद्यमान नहीं ।
इस युक्ति के उपर नागार्जुन का आक्षेप है कि दर्शनादि से पूर्व (पहले) विद्यमान आत्मा का ज्ञान हमें किस प्रकार होगा ? आत्मा और दर्शनादि क्रियाओ का परस्पर सापेक्ष संबंध है। यदि दर्शनादि के बिना ही आत्मा की स्थिति हो तो दर्शनादिक्रियाओ की स्थिति भी आत्मा के बिना हो जायेगी। माध्यमिक कारिका में वही कहा है कि...
विनापि दर्शनादीनि यदि चासौ व्यवस्थितः । अमून्यपि भविष्यन्ति विना तेन न संशयः ॥ ९॥४ ॥
"समग्र दर्शन, श्रवण, वेदन आदि क्रियाओ से पूर्व हम किसी वस्तु (आत्मा) का अस्तित्व नहीं मानते, कि जिसका ज्ञानके लिए अन्यपदार्थ की आवश्यकता रहे । परन्तु हम प्रत्येक दर्शनादिक्रिया से पूर्व आत्मा का अस्तित्व मानते है । "
प्रतिवादि के इस तर्क के उत्तर में नागार्जुन का कहना है कि, यदि आत्मा समग्र दर्शनादि से पूर्व (पहले) स्वीकृत न तो वह आत्मा एक भी दर्शनादि से पहले सिद्ध नहीं होता। क्योंकि, जो वस्तु सर्वपदार्थो के पहले नहीं होती, वह वस्तु एक-एक पदार्थो के पहले भी नहीं होती। जैसेकि रैत में तेल । समग्र रेत में से तेल उत्पन्न नहीं होता । ऐसी दशा में एक एक रेत के कण में से (बालू में से) भी तेल उत्पन्न नहीं होगा । यही बात माध्यमिक कारिका में की गई है।
सर्वेभ्यो दर्शनादिभ्यो यदि पूर्वो न विद्यते । एकैकस्मात् कथं पूर्वो दर्शनादेः स युज्यते ॥ ९७ ॥
उपरांत दर्शन, श्रवणादि जो महाभूतो में से उत्पन्न होते है, वे महाभूतो में भी आत्मा विद्यमान नहीं है। यह बात माध्यमिककारिका में की है ।
दर्शनश्रवणादीनि वेदनादीनि चाप्यथ । भवन्ति येभ्यस्तेष्वेष भूतेष्वपि न विद्यते ॥ ९॥१० ॥
निष्कर्ष यह है कि दर्शनादिक्रियाओ से पहले आत्मा के अस्तित्व का हमको परिचय नहीं होता । इसके साथ (दर्शनादि के साथ) भी आत्मा विद्यमान नहीं रहता। क्योंकि, सहभाव उस पदार्थो का संभव है कि जिसकी पृथक्-पृथक् सिद्धि हो । परंतु साक्षेप होने से आत्मा दर्शनादि क्रियाओ से पृथक् सिद्ध नहीं होता। ऐसी दशा में दोनो का सहभाव असंभव है।
उपरांत, आत्मा दर्शनादि क्रियाओ के पश्चात् उतरकाल में ही विद्यमान नहीं रहता है। क्योंकि, दर्शनादि क्रियारुप है । वह कर्ता की अपेक्षा रखता है । (प्रसन्नपदा ग्रन्थ में कहा है कि -)
यदि हि पूर्वं दर्शनादीनि स्युः, उत्तरकालमात्मा स्याद्, तदानीमूर्ध्वं सम्भवेत् । न चैवमकर्तृकस्य कर्मणोऽसिद्धत्वात् ॥ (पृ.१९९)
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