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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
हो । परन्तु पृथक् तो नहीं है। माध्यमिक कारिका में कहा है कि ---
अन्यदन्यत् प्रतीत्यान्यन्नान्यदन्यदृतेऽन्यतः । यत्प्रतीत्य च यत् तस्मात्तदन्यन्नोपपद्यते ॥१४॥५॥ - घट को निमित्त मानकर (प्रतीत्य) पट पृथक् है और पटकी अपेक्षा से घट अलग वस्तु प्रतीत होता है। सर्व सामान्य नियम यह है कि जो वस्तु जिस निमित्त से उत्पन्न होती है वह उससे पृथक् नहीं हो सकती । जैसे कि बीज और अंकुर । इस नियमानुसार पट घट से पृथक् नहीं है। तो दोनो का संसर्ग भी किस प्रकार हो सकेगा? इस प्रकार से संसर्ग की कल्पना असिद्ध होने से जगत की धारणा भी सर्वथा निर्मूल सिद्ध होती है। गतिपरीक्षा : नागार्जुनने लोकसिद्ध गमनागमन क्रिया की बहोत आलोचना की है। लोक में (व्यवहार में) हमको प्रतीत होता है कि देवदत्त "अ" जगह से चलकर "ब" जगह पर पहँचा । परन्त विचार करने से यह वास्तविक सिद्ध नहीं होता। कोई भी व्यक्ति एक समय में दो स्थानो में विद्यमान नहीं रह सकता। "अ" से "ब" स्थान तक चला, इसका अर्थ यह हुआ कि एक काल में दोनो स्थानो के उपर विद्यमान रहता है । जो साधारण रुप में असंभव है। माध्यमिक कारिका में कहा है कि... गतं न गम्यते तावदगतं नैव गम्यते । गतागतं विनिर्मुक्तं गम्यमानं न गम्यते ॥२१॥
जो मार्ग गमन द्वारा पार कर दीया है, उसको हम "गम्यते" (वह मार्ग पार किया जाता है - हो रहा है एसा) नहीं कह सकते । “गम्यते' वर्तमानकालीक क्रिया है कि जो भूत (भूतकालीन) पदार्थ के विषय में प्रयुक्त नहीं हो सकता । और जो मार्ग के उपर अभी चलना है उसके लिये भी “गम्यते" नहीं कह सकेगें । ___ मार्ग के दो ही विभाग हो सकते है – एक जो पार कर दिया है (गत) और दूसरा कि जिसको अब भविष्य
र करना है। (अगत)। ये दोनो के सिवा दसरा कोई मार्ग नहीं है कि जिसके उपर चला जा सके। इसलिये फलतः गमनक्रिया असिद्ध हो जाती है। कर्ता की क्रिया कल्पना के साथ सम्बद्ध रहती है, जब क्रिया ही असिद्ध है, तब स्वाभाविक कर्ता की असिद्धि है।
गमन के समान ही स्थिति की कल्पना निराधार है। स्थिति किसके विषय में प्रयुक्त की जा सकती है - (गन्ता) गमनकर्ता के विषय में या "अगन्ता" (गमन नहीं करनेवाले) के विषय में ? गमन करनेवाला खड़ा रहता है, वह कल्पना विरोधि होने से त्याज्य है। गमन स्थिति की विरुद्धक्रिया है। इसलिये गमन का कर्ता
।। "अगन्ता (गमन नहीं करनेवाला) खड़ा रहता है।" यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति गमन ही नहीं करता वह तो स्वयं स्थित है। तो उसको फिरसे खडा रहने की आवश्यकता क्या है ? इसलिये अगन्ता का भी अवस्थान उचित नहीं है। ये दोनो को छोडकर तीसरा व्यक्ति कौन है कि जो स्थिति करे । फलतः कर्ता के अभाव में क्रिया का निषेध अवश्यंभावी (निश्चित) है। इसलिये स्थिति की कल्पना मायिक है । गति और स्थिति दोनो सापेक्षिक होने से अविद्यमान है । इसलिये कहा है कि
गन्ता न तिष्ठति तावदगन्ता नैव तिष्ठति । अन्यो गन्तुरगन्तु कस्तृतीयोऽथ तिष्ठति ॥ आत्मपरीक्षा : नागार्जुनने आत्मा की परीक्षा के लिये माध्यमिक कारिका ग्रंथ में एक स्वतंत्र प्रकरण-१८की रचना की है।
पहले जो द्रव्य की कल्पना समजाई गई है उससे स्पष्ट है कि गुण समुच्चय से अतिरिक्त उसकी (द्रव्यकी ) स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यही नियम का उपयोग करके हम कह सकते है कि मानसव्यापारो से अतिरिक्त आत्मा नाम के पदार्थ की पृथक्सत्ता नहीं है। दैनिक अनुभव में हम हमारे मानस व्यवहारो से सर्वथा परिचित है। ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न-हमारे जीवन के प्रधान साधन है। हमारा मन कभी भी ये तीनो
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