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________________ १०८ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ अतिरिक्त घट की स्थिति क्या है ? घट का विश्लेषण करने से यही गुण हमारी समक्ष आते है। इसलिये द्रव्य की परीक्षा करने से हम गुणो के उपर आ पहुंचते है और गुणो की परीक्षा हमको द्रव्य तक लाकर रखती है। हमको स्पष्ट ख्याल नहीं आता कि द्रव्य और गुण में मुख्य कौन और अमुख्य कौन ? दोनो एकाकार होते है या भिन्न? नागार्जुनने समीक्षाबुद्धि से दोनो की कल्पना को सापेक्षिक बताया है। रंग, चिकनाहट, रुक्षता, गंध आदि आभ्यन्तर पदार्थ है। उसकी स्थिति इसलिए है कि हमारी इन्द्रियो की सत्ता है। आँख के बिना न रंग है और कान के बिना शब्द नहीं है। इसलिये हम से भिन्न तथा बाहर के हेतुओ के उपर अवलंबित है। इसलिए उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । (क्योंकि) इन्द्रियो के उपर अवलंबित रहते है। इस प्रकार से गुण प्रतीत या आभासमात्र है। इसलिये जो पदार्थो में यह गुण विद्यमान रहते है वे पदार्थ भी आभासमात्र है। हम समजते है कि हमने द्रव्य का ज्ञान संपादित किया है, परन्तु वस्तुतः हम गुणो के समुदाय के उपर संतोष करते है । वास्तव में द्रव्य के स्वभाव से हम कभी भी परिचित नहीं है और हो भी नहीं सकते। क्योंकि, वस्तुएँ जो स्वयं सत्य परमार्थ है, वह ज्ञान तथा वचन दोनो से अतीत वस्तु है, उसका ज्ञान तो प्रातिभचक्षु के सहारे ही भाग्यशाली योगीयों को हो सकता है। यह द्रव्य एक संबंधमात्र है। अन्य कुछ नहीं है। द्रव्यगुणो का एक अमूर्त संबंध है और जितने संसर्ग है वे सब अनित्य और असिद्ध है। इसलिए द्रव्य प्रमाणतः सुतरां सिद्ध नहीं हो सकता। यह पारमार्थिक विवेचना हुई। व्यवहार की सिद्धि के लिये हम द्रव्यो की कल्पना गुणो के संचयरुप में मान सकते है। क्योंकि यह निश्चित बात है कि गुण--रंग, आकार आदि कोई मूलभूत आधार को छोड के दूसरे स्थान पर नहीं रह सकते । इस तरह से नागार्जुनने द्रव्य के पारमार्थिक रुप का निषेध करने पर भी व्यावहारिक रुप का अपलाप (विरोध) नहीं किया। जाति : जिसको हम "जाति" के नाम से कहते है। उसका स्वरुप क्या है ? क्या जाति वह पदार्थो से भिन्न होती है या अभिन्न होती है ? नागार्जुनने जाति की नितान्त असत्ता सिद्ध की है जगत का ज्ञान वस्तु के सामान्यरुप को लेकर प्रवृत्त नहीं होता । प्रत्युत दूसरी वस्तु से उसकी विशिष्टता का स्वीकार करके ही आगे बढ़ता है। गाय किसे कहा जाता है ? जो घोडा न हो या हाथी न हो । गाय का अपना जो रुप है वह तो ज्ञान से अतीतवस्तु है। उसको हम किसी भी प्रकार से नहीं जान सकते । गाय के विषय में हम इतना ही जानते है कि वह पशुविशेष है वह घोडे और हाथी से भिन्न है । शब्दार्थ का विचार करने के समय पीछे के काल में बौद्ध पण्डितोने उसको अपोह की संज्ञा दी हुई है। जिसका शास्त्रीय लक्षण है - 'तदितरेतरत्व' अर्थात् उस पदार्थ से भिन्न वस्तु से भिन्नता का ज्ञान । जैसे कि, गाय जो है उससे भिन्न हाथी आदि और हाथी आदि से भिन्न गाय है। जगत स्वयं असत्तात्मक है। तो गोत्व भी असत् धर्म सिद्ध होता है। उस धर्म द्वारा हम किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं कर सकते है। इसलिये सामान्य का ज्ञान असिद्ध है। किसी भी वस्तु के स्वरुप से हम परिचित हो ही नहीं सकते है। इसलिये निष्कर्ष यह नीकलता है कि समस्तद्रव्यो का सामान्य तथा विशिष्टरुप ज्ञान के लिए अगोचर है। संसर्गविचार : यह जगत संसर्ग-संबंध का समुदाय मात्र है। परन्तु परीक्षा करने से वह संसर्ग भी बिलकुल असत्य प्रतीत होता है। इन्द्रियो तथा विषयो के साथ संसर्ग होने से तत् तत् विशिष्टज्ञान उत्पन्न होता है। चक्षु का रुप के साथ संबंध होने से चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न होता है। परंतु यह संसर्ग सिद्ध नहीं होता। संसर्ग उस वस्तुओ का होता है जो एकदूसरे से पृथक् (भिन्न) हो । पट से घट का संबंध तब ही प्रमाण बनता है, कि जब ये दोनो पृथक् ★ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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