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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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माध्यमिककारिका में कहा है कि -
तस्य चेदन्यथाभावः क्षीरमेव भवेद् दधि । क्षीरादन्यस्य कस्यचिद् दधिभावो भविष्यति ॥ १३।६ ॥ इसलिये यदि वस्तु का कोई अपना स्वभाव है, तो वह परिवर्तित न होगा। परन्तु माध्यमिक मत में सब वस्तु निःस्वभाव है । इसलिये कार्य-कारण भाव, उत्पाद-विनाश परिणाम आदि परस्पर धारणाओ का वास्तविकता की दृष्टि से कोई मूल्य नहीं है। स्वभाव परीक्षा : जगत के पदार्थो की विशेषता यह है कि, वे कोई हेतु से उत्पन्न होता है, ऐसी दशा में वे पदार्थो की स्वतंत्र सत्ता किस प्रकार से मान सकते है ? जिस हेतुओ के उपर कोई भी पदार्थ की स्थिति अवलंबित है
और उसके हटने के साथ पदार्थ नष्ट हो जाता है ऐसी विषमस्थितिमें वस्तुओ को प्रतिबिम्ब समान मानना यही न्यायसंगत है। माध्यमिक वृत्ति में यही बात की है। हेतुतः सम्भवो येषां तदभावान्न सन्ति ते । कथं नाम ते स्पष्टं प्रतिबिम्बिसमा मताः ॥
युक्तिषष्टिक नाम के ग्रंथ में नागार्जुने स्पष्ट कहा है कि- हेतुतः सम्भवो यस्य स्थितिर्न प्रत्ययैर्विना । विगमः प्रत्ययाभावात् सोऽस्तीत्यवगतः कथम् ॥
आशय यह है कि, जिसकी उत्पत्ति कारण से होती है, जिसकी स्थिति प्रत्ययो (सहायककारणो) के बिना नहीं होती है। प्रत्यय के अभाव में जिसका नाश होता है, वह पदार्थ "अस्ति" विद्यमान है, वह किस प्रकार जानेगें? अर्थात् पदार्थ की तीन अवस्थाएँ उत्पाद, स्थिति और भंग पराश्रित है। जो दूसरो के उपर अवलंबित रहता है, वह किसी भी प्रकार से सत्ताधारी नहीं हो सकता। जगत के सर्वपदार्थों में यह विशिष्टता देख सकते है कि, वे दूसरो के उपर अवलंबित रहते है। इसलिये वे पदार्थो को कभी भी सत्तात्मक नहीं माना जा सकता। जगत के सर्व पदार्थ गन्धर्वनगर, मृगमरीचिका, प्रतिबिम्बकल्प होने से नितरां मायिक है।
लोक में उसको "स्वभाव" कहते है, कि जो कृतक न हो, जिसकी उत्पत्ति किसी भी कारण से न हो । जैसे कि, अग्नि की उष्णता । जो उष्णता धर्म है, वह अग्नि के लिये स्वाभाविक धर्म है। परन्तु जल के लिए कृतक है। इसलिये उष्णता अग्नि का स्वभाव है, जलका नहीं।
इस युक्ति से साधारण जन वस्तुओ के स्वभाव में परम श्रद्धा रखते है। परन्तु नागार्जुन का कहना है कि, अग्नि की उष्णता है. वह क्या कारण निरपेक्ष है? वह तो मणि, इन्धन, आदित्य के समागम से तथा अरणि के घर्षण से उत्पन्न होता है । उष्णता अग्नि को छोडकर पृथक्रुप से अवस्थित नहीं रहती । इसलिये अग्नि की उष्णता हेतु - प्रत्ययजन्य है। इसलिये कृतक अनित्य है । उष्णता को अग्नि का स्वभाव बताना वह तर्ककी
लना करनेके बराबर है। जब वस्त का स्वभाव नहीं तब उसमें परभाव की कल्पना न्यायी नहीं है। स्वभाव तथा परभाव के अभाव में भाव की भी सत्ता नहीं है। और अभाव की भी सत्ता नहीं है। इसलिये माध्यमिको के मत में जो विद्वान स्वभाव, परभाव, भाव तथा अभाव की कल्पना वस्तुओ के विषय में करता है वह परमार्थ के ज्ञान से दूर है। माध्यमिक वृत्ति में कहा है कि...
स्वभावं परभावं च भावं चाभावमेव च । ये पश्यन्ति न पश्यन्ति ते तत्त्वं बुद्धशासने ॥१५।६।। द्रव्यपरीक्षा : साधारण से जगत में द्रव्यो की सत्ता मानी जाती है। परन्तु परीक्षा करने से द्रव्य की कल्पना भी अन्य की कल्पना के समान हमको कोई परिणाम के उपर नहीं पहुंचाती। जिनको हम द्रव्य कहते है वह वस्तुतः है क्या ? रंग, आकार आदि गुणो का समुदायमात्र है। क्योंकि नीलरंग, विशिष्ट आकार तथा खुर्दरा स्पर्श, इससे
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