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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
तत्परमार्थलक्षणम् ॥६॥१॥अर्थात् परमतत्त्व पाँच प्रकार से अद्वैतरुप है। सत्-असत्, तथा-अतथा, जन्म-मरण हास -वृद्धि, शुद्धि-अविशुद्धि, वे पाँचो कल्पनाओ से परमार्थतत्त्व नितान्तमुक्त है।
उपरांत बोधिसत्त्व (ज्ञान प्राप्त करने की इच्छावाला व्यक्ति) वास्तविक शून्यज्ञ (शून्य के सत्य स्वरुप को जाननेवाला) तब कहा जा सकता है कि, जब शून्यता के त्रिविध प्रकारो से अच्छी तरह से परिचित हो । वे तीन
प्रकार इस अनुसार है। (क) अभावशून्यता : अभाव का अर्थ, वे लक्षणो से हीन होने का है। जिनको हम साधारण कल्पना में कोई वस्तु के
साथ सम्बद्ध मानते है । (परिकल्पित) (ख) तथाभावशून्यता : वस्तु को जो स्वरुप में साधारणतया हम मानते है, वह नितान्त असत्य है। जिनको हम
साधारण भाषा में घट से पहचानते है, उसका कोई वास्तविक स्वरुप नहीं है । ( परतंत्र) (ग) प्रकृतिशून्यता : स्वभाव से ही समग्र पदार्थ शून्यरुप है। (परिनिष्पन्न ). महायान सूत्रालंकार में यही बात कही है।
अभावशून्यता ज्ञात्वा तथा - भावस्य शून्यताम् । प्रकृत्या शून्यतां ज्ञात्वा शून्यज्ञ इति कथ्यते ॥१४॥३४॥ तुलना : माध्यमिक
योगाचार (१) संवृत्तिसत्य परिकल्पित
परतंत्र (२) परमार्थसत्य परिनिष्पन्न परिकल्पितसत्य यह है कि, जो प्रत्यय - जन्य हो, कल्पना द्वारा जिसका स्वरुप आरोपित किया गया हो तथा सत्यरुप हमारी दृष्टि से अगोचर हो।
परतंत्र हेतु - प्रत्यय जन्य होने से दूसरे के उपर आश्रित रहता है। जैसे कि, लौकिक प्रत्यक्ष से गोचर घटादिपदार्थ कि जो मृत्तिका (मिट्टी), कुंभकारादि (कुम्हार) के संयोग से उत्पन्न होता है । इसलिये उसका
स्वविशिष्ट स्वरुप से नहीं होता। 'परिनिष्पन्न' सत्य अद्वैतवस्तु का ज्ञान है। (४) माध्यमिक (शून्यवाद) की मान्यता :
'यः प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यतां तां प्रचक्ष्यामहे । सा प्रज्ञप्तिरुपमादाय प्रतिपत् सैव मध्यमा ॥' माध्यमिक कारिका-२४/१८, नागार्जुन)
अखण्ड तापसजीवन तथा सौम्य भोगविलास, जीवन के ये दोनो छोर को छोडकर बुद्धने मध्यममार्ग को अपनाया । तत्त्वविवेचन में शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद दोनो एकांगीमतो का परिहार करके "मध्यममत" ग्रहण किया। इस मत का पक्षपात रखनेवाले "माध्यमिक" कहे गये।
बुद्ध के "प्रतीत्यसमुत्पाद" के सिद्धान्त का विकास करके "शून्यवाद" की प्रतिष्ठा माध्यमिकोने की। इसलिये वे 'शून्यवादि' भी कहे जाते है । वे शून्य को परमार्थ मानते है। इस मत के मुख्य स्थापक नागार्जुन माने जाते है। बौद्धदर्शन का यह चरम विकास माना जाता है।
सिद्धांत : (क) ज्ञानमीमांसा : नागार्जुनने अपनी तार्किकशक्ति द्वारा अनुभव की एक विशाल मार्मिक व्याख्या की है। उनका कहना है कि, यह जगत मायिक (माया से युक्त) है। स्वप्नमें देखे गये पदार्थो की सत्ता
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