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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
सारांश यह है कि, जो लक्षण अथवा भाव वस्तु में स्वयं उपस्थित न हो, उसकी कल्पना करना वह प्रतिष्ठापन कहा जाता है । लोकव्यवहार के मूल में यह प्रतिष्ठापन व्यवहार सदा प्रवृत्त रहता है और इस प्रतिष्ठापिकाबुद्धि का अतिक्रमण करना योगीजन का प्रधान कार्य है। इसके सिवा रागद्वेषादि द्वन्द्वातीत नहीं होगा । और निर्वाण प्राप्त नहीं होगा ।
परिकल्पित और परतंत्रसत्य में परस्परभेद है । परिकल्पित केवल निर्मूल कल्पनामात्र है । परन्तु परतंत्र बाह्य सत्यसापेक्ष है । परतंत्र उतना दूषित नहीं है । परन्तु परिकल्पित सत्य भ्रान्ति का कारण है । परतंत्र शब्द का ही अर्थ यह है कि, दूसरे के उपर अवलंबित। इसलिये तात्पर्य यह है कि, परतंत्र सत्ता स्वयं उत्पन्न नहीं होती । परन्तु हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न होती है। परिकल्पित लक्षण में ग्राह्य-ग्राहकभाव का स्पष्ट उदय होता है । परन्तु भेद की कल्पना नितान्तभ्रान्त है ।
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ग्राहकभाव और ग्राह्यभाव दोनो परिकल्पित है। क्योंकि, विज्ञान एकाकार रहता है। उसमें न तो ग्राहकत्व है और न तो ग्राह्यत्व है। जब तक यह संसार है तब तक यह द्विविध कल्पना चलती रहती है। जिस समय ये दोनो भाव निवृत्त होते है, उस समय की अवस्था परिनिष्पन्नलक्षण कही जाती है ।
परतंत्र हंमेशा परिकल्पित लक्षण के साथ मिश्रित हो के हमारे सामने उपस्थित होता है । जिस समय यह मिश्रण समाप्त हो जायेगा और अपने विरुद्ध रुप में प्रतीत होने लगेगा वह उसकी परिनिष्पन्नावस्था है ।
आचार्य असंगने "महायानसूत्रालंकार" में सत्य के ये तीन प्रकारो का वर्णन नीचे बताये अनुसार किया है।
( १ ) परिकल्पितसत्ता : जिसमें कोई वस्तुका नाम अथवा अर्थ अथवा नाम का प्रयोग, संकल्प द्वारा किया जाये वह परिकल्पित सत्ता है । ( यथा नामार्थमर्थस्य नाम्नः प्रख्यानता च या । संकल्पनिमित्तं हि परिकल्पितलक्षणं ॥ ( म.सू.लं. ११।३९ )
(२) परतंत्र सत्ता : जिसमें ग्राह्य और ग्राहक के तीनो लक्षण कल्पना के उपर अवलम्बित हो, उसे परतंत्रसत्ता कहा जाता है। ग्राह्य के तीन भेद है । (१) पदाभास, (२) अर्थाभास, (३) देहाभास । ग्राहक के तीन भेद है । (१) मन, (२) उदग्रह, (चक्षुर्विज्ञान आदि पाँच इन्द्रिय विज्ञान ।) (३) विकल्प । ग्राह्य और ग्राहक के ये तीन भेद जिस अवस्था में उत्पन्न होते है, उस अवस्था की सत्ता परतंत्र सत्ता कही जाती है ।
महायानसूत्रालंकार में कहा है कि.....
त्रिविधं विविधाभासो ग्राह्यग्राहकलक्षणः । अभूत परिकल्पो हि परतन्त्रस्य लक्षणम् ॥११॥४०॥
( ३ ) परिनिष्पन्न : परिनिष्पन्न वस्तु वह है कि जो भाव और अभाव से इस प्रकार से अतीत है, कि जिस प्रकार से दोनो के मिश्रणरुप से और वह सुख और दुःख की कल्पना से नितान्तमुक्त है । महायान सूत्रालंकार में कहा है कि....
“अभावभावता या च भावाभावसमानता । अशान्तशान्ताऽकल्पा च परिनिष्पन्नलक्षणम् ॥११॥४५ ॥ उसका दूसरा नाम 'तथता' है। उस तथता की प्राप्त कर लेने से बुद्ध तथागत नाम से प्रसिद्ध हुए थे (ऐसा माना जाता है ।) वह परमार्थ अद्वैतरुप है ।
उसके स्वरुप का वर्णन करते हुए आचार्य असंगने महायान सूत्रालंकार में कहा है कि - "न सन्न चासन्न तथा न चान्यथा न जायते न व्येति न चावहीयते । न वर्धते नापि विशुद्धयते पुनः, विशुद्धयते
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