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________________ १०२ विकासमात्र है । ( ६ ) तथता : तथता का अर्थ है तथा (जैसी वस्तु हो वैसी उसकी स्थिति) का भाव । ये विज्ञानवादियो का परमतत्त्व है। विश्व के समग्र धर्मो का नित्यस्थायी धर्म तथता' ही है । तथता का अर्थ है अविकारी तत्त्व | अर्थात् ऐसा पदार्थ कि जिस में कोई प्रकार का विकार उत्पन्न न हो (स्थिरमति की टीका में यही बात की है ।) तथता अविकारार्थेनेत्यर्थः । नित्यं सर्वस्मिन् कालेऽसंस्कृतत्त्वान्न विक्रियते । ( मध्यान्तविभाग - पृ. ४१ ) विकार हेतु-प्रत्ययजन्य होते है । इसलिये 'तथता' असंस्कृत धर्म होने के कारण उसका अविकार होना स्वाभाविक । इस परमतत्त्व के भूतकोटि, अनिमित्त, परमार्थ और धर्मधातु पर्यायवाचि शब्द है । है ★ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ भूत = सत्य + अविपरीत पदार्थ; कोटी = अन्त, इससे अतिरिक्त दूसरा कोई ज्ञेय पदार्थ नहीं है । इसलिये उसको भूतकोटि (सत्य वस्तुओ का पर्यवसान) कहा जाता है। (भूतं सत्यमविपरीतमित्यर्थः कोटिः पर्यन्तः । यतः परेणान्यत् ज्ञेयं नास्ति अतो भूतकोटिः भूतपर्यन्तः । (स्थिरमति की टीका, मध्यान्तविभाग पृ. ४१ ) सब निमित्तो से विहीन होने के कारण वह "अनिमित्त" कहा जाता है। वह लोकोत्तर ज्ञान द्वारा साक्षात्कृततत्त्व है। इसलिये परमार्थ है और यह आर्यधर्मो की सम्यकदृष्टि, सम्यक्व्यायाम (प्रयत्न) आदि श्रेष्ठ धर्मो का कारण (धातु) है। इसलिये उसकी संज्ञा " धर्मधातु " है । सत्तामीमांसा : योगाचारमत में सत्ता माध्यमिक मत के समान ही दो प्रकार की मानी जाती है । (१) पारमार्थिक ( २ ) व्यावहारिक । व्यावहारिक सत्ता को विज्ञानवादि आचार्य दो विभाग में बांटते है । (१) परिकल्पित सत्ता, (२) परतंत्र सत्ता । अद्वैतवेदान्तियो के समान ही विज्ञानवादियो का कथन है कि जगत के समस्त व्यवहार आरोप अर्थात् उपचार के उपर अवलंबित रहता है। वस्तु में अवस्तु के आरोप को अध्यारोप कहा जाता है। जैसे कि रज्जु (रस्सी) में सर्प का आरोप । इस दृष्टांत में रज्जु में किया गया सर्प का आरोप मिथ्या है। क्योंकि, दूसरी क्षण में हमको उचित परिस्थिति में इस भ्रान्ति का निराकरण हो जाता है और रज्जु का रज्जुत्व अपनी समक्ष उपस्थित हो जाता है । यहाँ सर्प की भ्रान्ति का ज्ञान परिकल्पित है। रज्जु की सत्ता परतन्त्र शब्द से अभिहित की जाती है। वह वस्तु जिस से रज्जु बनकर तैयार हुई है वह वस्तु को परिनिष्पन्न सत्ता कहा जाता है । लंकावतार सूत्र में भी परमार्थ और संवृत्ति ऐसे (सत्ता के) दो भेद बताये गये है । संवृत्तिसत्य ( व्यावहारिक सत्य) परिकल्पित तथा परतंत्रसत्य स्वभाव के साथ सदा सम्बद्ध रहता है। ये दोनो प्रकार का ज्ञान होने के बाद ही परिनिष्पिन्न ज्ञान होता है। परमार्थसत्य का संबंध वह ज्ञान से है। परमार्थ का ही दूसरा नाम 'भूतकोटि ' है। संवृत्ति परमार्थ का प्रतिबिम्बमात्र है । संवृत्ति का अर्थ होता है बुद्धि । वह दो प्रकार की मानी गई है। (१) प्रविचयबुद्धि, (२) प्रतिष्ठापिकाबुद्धि । प्रविचयबुद्धि से पदार्थो का यथार्थरुप ग्रहण किया जाता है । शून्यवादियो के समान ही समस्त पदार्थ सत्, असत्, अस्तित्व और नास्तित्व, ये चार कक्षा से सदा मुक्त रहते है । लंकावतारसूत्र का कथन है कि, बुद्धि से पदार्थो की विवेचना करने से उसका स्वभाव ज्ञानगोचर नहीं होगा । इसलिये विश्व के समस्तपदार्थो को लक्षणहीन (अनभिलाप्य) तथा स्वभावहीन (निःस्वभाव) मानने ही पडेंगे। वस्तु तत्त्व का यह विवेचन प्रविचयबुद्धि का कार्य है। प्रतिष्ठापिका बुद्धि से भेद-प्रपंच आभासित होते है । तथा असत् पदार्थ सत् रुप से प्रतीत होते है । इस प्रतिष्ठापन व्यापार को 'समारोप' कहा जाता है। लक्षण, इष्ट, हेतु और भाव, ये चार का आरोप होता है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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