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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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के समान ही जगत के समग्रपदार्थ की सत्ता काल्पनिक है। जाग्रत और स्वप्न में कोई अंतर नहीं है। केवल व्यवहार के निमित्त से जगत की सत्ता माननीय है। विश्व व्यवहारिक रुप से सत्य है। पारमार्थिक रूप से असत्य है। जगत असिद्ध संबंधो का समुच्चयमात्र है। जिस प्रकार से पदार्थो की गुणो को छोडकर स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उस प्रकार से यह जगत भी संबंधो का संघातमात्र है। इस जगत में सुख-दुःख, बंध-मोक्ष, उत्पाद-नाश, गतिविराम, देश-काल जितनी धारणाएँ मान्य है वे केवल कल्पनाएँ है। मानवोने अपना व्यवहार चलाने के लिये इस प्रकार से कल्पनाएं खडी की है। परन्तु तार्किकदृष्टि से विश्लेषण करने से वह केवल असत् सिद्ध होता है। सत्तापरीक्षा : सत्ता की मीमांसा करते करते माध्यमिक आचार्य इस परिणाम के उपर पहुँचे है कि यह शून्यरुप है। विज्ञानवादियो का विज्ञान अर्थात् चित्त परमतत्त्व नहीं है। चित्त की सत्ता प्रमाणो से सिद्ध नहीं हो सकती। समग्र जगत स्वभाव शून्य है।
चित्त के अस्तित्व का प्रमाण क्या है ? यदि ऐसा कहोंगे कि, चित्त ही अपने को देखने की क्रिया स्वयं करता है। तो वह विश्वसनीय नहीं है। क्योंकि, बुद्ध का स्पष्ट कथन है कि "नहि चित्तं चित्तं पश्यति" चित्त चित्त को देखता नहीं है। सुतीक्ष्ण भी तलवार की धार जिस अनुसार अपने को काटने के लिए असमर्थ है, उस प्रकार से चित्त अपने को देखने में समर्थ नहीं है। कहा है कि - उक्तं च लोकनाथेन चित्तं चित्तं न पश्यति ।
न च्छिन्ति यथाऽत्मानमसिधारा तथा मनः ॥(बोधिचर्यावतार ९।१७) वेद्य, वेदक और वेदन तथा ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान ये तीन वस्तुएँ पृथक् पृथक् है । एक ही वस्तु (ज्ञान) त्रिस्वभाव किस तरह से हो सकता है ? इस विषय में आर्यरत्नचूडसूत्र की एक उक्ति है कि चित्त की उत्पत्ति
आलंबन होने पर होती है। तो प्रश्न होता है कि, आलंबन चित्त से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि आलंबन और चित्त को भिन्न भिन्न मानेंगे तो दो चित्त होने का प्रसंग उपस्थित होगा। और तब तो विज्ञानाद्वयवाद की विरुद्ध होगा और यदि आलंबन और चित्त की अभिन्नता मानेंगे तो चित्त, चित्त को नहीं देख सकता। इसलिये चित्त न तो आलंबन से भिन्न सिद्ध होता है या न अभिन्न और आलंबन के अभाव में चित्त की उत्पत्ति का संभव नहीं है।
विज्ञानवादि इसके उत्तर में चित्त की स्वप्रकाश्यता का सिद्धांत लाते है। उनका कहना है कि जिस प्रकार से घट-पटादि पदार्थो को प्रकाशित करने के समय दीपक स्वयं अपने को भी प्रकाशित करता है । इस प्रकार से चित्त स्वयं खुद को प्रकाशित करेंगा। परंतु (शून्यवाद के मतानुसार) यह पक्ष ठीक नहीं है। प्रकाशन का अर्थ है - "विद्यमानस्यावरणस्यापनयनं प्रकाशनम्।" विद्यमान आवरण का अपनयन । घटपटादि पदार्थो की स्थिति पूर्वकाल से है। इसलिये उसके आवरण का अपनयन न्यायप्राप्त है। परन्तु चित्त की पूर्वस्थिति है ही नहीं, तो चित्त का प्रकाशन किस प्रकार से संभवित हो सकेगा?
आत्मभावं यथा दीपः संप्रकाशयतीति चेत् । नैव प्रकाश्यते दीपो यस्मान्न तमसा वृत्तः ॥ (बोधि चर्यावतार - ६।१८॥)
"दीपक प्रकाशित होता है।" इसका ख्याल हमको ज्ञान से होता है। उस प्रकार से बुद्धि प्रकाशित होती है, उसका ख्याल किस प्रकार से होता है ? बुद्धि प्रकाशरुप हो या अप्रकाशरुप हो, (परन्तु) यदि कोई उसका दर्शन करे तो उसकी सत्ता मान्य हो । परन्तु उसका दर्शन न होने से उसकी संज्ञा किस प्रकार से अंगीकार की जाये ? वन्ध्या का पुत्र ही असिद्ध है, तो उसकी लीला किस प्रकार से बने ? सुतरां न बने । उस प्रकार से बुद्धि की सत्ता ही असिद्ध है, तो उसकी स्वप्रकाश या परप्रकाश की कल्पना नितरां असिद्ध है। कहा है कि..
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