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________________ ९८ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ अविभागो हि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥ सर्व सिद्धान्त संग्रह। विज्ञान का स्वरुप एक ही है। भिन्न भिन्न नहीं है। योगाचार विज्ञानाद्वैतवादि है। उनकी दृष्टि अद्वैतवाद की है। परन्तु प्रतिभान-प्रतिभासित होनेवाले पदार्थो की भिन्नता तथा बहुलता के कारण एकाकारबुद्धि बहुल से प्रतीत होती है । विज्ञान में प्रतिभान के कारण किसी प्रकार का भेद उत्पन्न नहीं होता । कहा है कि... बुद्धिस्वरुपमेकं हि वस्त्वस्ति परमार्थतः । प्रतिभानस्य नानात्वान्न चैकत्वं विहन्यते ॥ सर्वसिद्धान्तसंग्रह ॥४॥४६॥ इस विषय में योगाचार विद्वान प्रमदा (स्वरुपवान स्त्री) का उदाहरण देते है। एक ही प्रमदा के शरीर को संन्यासी (मृतदेह) समजते है। कामुक कामिनी मानते है। तथा कुत्ता उसको भक्ष्य मानता है। परन्तु स्त्री तो एक ही है। केवल कल्पनाओ के कारण यह स्त्री भिन्न भिन्न व्यक्तिओ को भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है। प्रमदा के समान ही बुद्धि की दशा है। एक होने पर भी नाना (भिन्न-भिन्न) प्रतिभासित होती है। कर्ता-कर्म, विषयविषयी सब स्वयं बुद्धि है। • विज्ञान के प्रभेद : विज्ञान का स्वरुप एक अभिन्न प्रकार का है। परन्तु अवस्थाभेद के कारण उसके आठ प्रकार माने जाते है। (१) चक्षुर्विज्ञान, (२) श्रोत्रविज्ञान, (३) घ्राणविज्ञान, (४) जिह्वाविज्ञान, (५) कायविज्ञान, (६) मनोविज्ञान, (७) क्लिष्टमनोविज्ञान, (८) आलयविज्ञान । (१) चक्षुर्विज्ञान : चक्षु के सहारे जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे चक्षुर्विज्ञान कहा जाता है। इस विज्ञान के तीन आश्रय है। (अ) चक्षु कि जो विज्ञान के साथ साथ अस्तित्व में आता है और साथ साथ विलीन हो जाता है। इसलिये सदा संबद्ध होने के कारण चक्षु 'सहभू' आश्रय है। (ब) मन कि जो इस विज्ञान की संतति के पीछे आश्रय बनता है, इसलिये मन समनन्तरआश्रय है। (क) रुप, इन्द्रिय, मन तथा समग्र विश्व का बीज जिस में सदा विद्यमान रहता है वह सर्वबीजक आश्रय आलय-विज्ञान है। ये तीनो आश्रयो में चक्षु रुप(भौतिक) होने से रुपी आश्रय है। तथा अन्य दोनो अरुपी आश्रय है। • चक्षुर्विज्ञान के आलंबन अर्थात् विषय तीन है। (१) वर्ण : नीलादि, (२) संस्थान (आकृति) : हुस्व, दीर्घ, वृत्त, परिमण्डलादि, (३) विज्ञप्ति (क्रिया): लेना, फेंकना, रखना इत्यादि । • चक्षुर्विज्ञान के कर्म छः प्रकार के है : (१) स्वविषयावलम्बी, (२) स्वलक्षण, (३) वर्तमानकाल, (४) एक क्षण, (५) इष्ट अथवा अनिष्ट का ग्रहण, (६) शुद्ध अथवा अशुद्ध मन के विज्ञानकर्म का उत्थान । (२-५) चक्षुर्विज्ञान की तरह ही बाकी की चार इन्द्रियो के भी आश्रय, आलंबन, कर्म आदि भिन्न भिन्न होते (६) मनोविज्ञान : चित्त, मन और विज्ञान मनोविज्ञान का स्वरुप है। संपूर्ण बीजो को धारण करनेवाला जो आलयविज्ञान है वही चित्त है। मन, वह है कि जो अविद्या, अभिमान, अपने को कर्ता मानना तथा विषय की तृष्णा, ये चार क्लेशो से युक्त रहता है। विज्ञान, वह है कि जो आलंबन की क्रिया में उपस्थित रहता है। मनोविज्ञान का आश्रय स्वयं मन है। और वह समनन्तर आश्रय है। क्योंकि श्रोत्रादि इन्द्रियो के द्वारा उत्पन्न होते हुए विज्ञान के अनन्तर ही विज्ञानो का आश्रय बनता है। इसलिये मन को समनन्तर आश्रय कहा जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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